बुधवार, 4 मार्च 2009

पत्रकार को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए?

इलेस्ट्रेटेड विकली के संपादक अनिल धारकर ने 19-25 दिसंबर 1992 के अंक में अपनी संपादकीय टिप्पणी में सहकर्मियों के साथ हुई बैठक का जिक्र किया है। यह बैठक 6 दिसंबर के बाबरी मस्जिद विध्वंस की छाया में हो रही थी । एक ने पूछा,‘‘आप के पास आडवाणी के इस आरोप का क्या जवाब है कि जब कश्मीर में इतने सारे मंदिर तोड़े गए तब किसी ने चूॅ तक नहीं की, दूसरी ओर एक- सिर्फ-एक मस्जिद टूटी तो पूरा देश भड़क उठा?’’ दूसरे का मत था,‘‘हम लंबे अरसे से अल्पसंख्यकों की तरफदारी करते आये हैं।’’ एक और सहकर्मी ने शिकायत की ‘‘ बांग्लादेशी शरणार्थियों को हम क्यों आने देते हैं जबकि हमारे पास अपने लिए ही पर्याप्त साधन नहीं है। क्या केवल इसलिए नहीं कि वे अल्पसंख्यक हैं?‘‘( सदर्भ-भारतीय मुसलमानः मिथक और यर्थाथ)

यह इलेस्ट्रेटेड विकली के दफ्तर की तस्वीर मात्र ही नहीं है बल्कि यह इस ओर भी इंगित करती है कि पत्रकारीय मूल्य का कितना पतन हो चुका है? पत्रकारों के इन प्रश्नों के कई मर्म हैं। जिनमें मुख्य मुद्दा यह है कि जब उच्च शिक्षित वर्ग भी चीजों को केसरिया चश्में से देखेगा तो सड़क के आदमी से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह इन तरह की घटनाओं पर प्रतिक्रिया देते वक्त सांप्रदायिक बहाव में नहीं बहे? ऐसे में यह बहस लाजिमी है कि पत्रकार को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए अथवा नहीं।

पत्रकारीता का इतिहास काफी पुराना है। इस काल में पत्रकारों के लिए मुश्किल दौर भी आए और स्वर्णीम युग भी। पत्रकारों से हमेशा यह अपेक्षा की जाती रही है कि वह किसी भी मसले को धार्मिक चश्में से देखने के बजाय उसे निष्पक्षता की कसौटी पर तोले। सच्ची और सही तस्वीर पेश कर वह पत्रकारीय मूल्य को जीवित रखे। कहना गलत नहीं होगा कि कई ऐसे पत्रकार रहे हैं जिन्होंने पत्रकारीय मूल्य को जाति, धर्म और क्षेत्र से ज्यादा महत्व दिया। आजादी पूर्व की पत्रकारीता हमारे सामने है। तमाम मुश्किलों के बावजूद उस दौर के पत्रकारों ने अपने उसूलों और मजहबी एकता को टूटने नहीं दिया। यह दौर मिशन प्रधान था और मकसद थी, सिर्फ आजादी। इस मिशन को हिंदू-मुस्लिम जैसी कोई भावना प्रभावित नहीं कर सकी। मुल्क के प्रति वफादारी और हमदर्दी क्या होती है, इसका अंदाजा ‘पयामे-हिंद’ अखबार के संपादकों की शहादत से समझा जा सकता है। आजादी की लौ को जलाए रखने और ब्रिटिश सरकार का विरोध करने के कारण इस अखबार के कई संपादक शहीद हुए। मौत की सजा पाए सभी संपादकों का संबंध मुस्लिम कौम से था।

यहां गणेश शंकर विधार्थी का जिक्र लाजिमी है। सन् 1931 के कानपुर दंगे के बारे में विधार्थी ने लिखा था- रक्तपात ओर नरहत्या अच्छे काम नहीं। संसार के सुन्दर और सबल आदमियों का एक-दूसरे के गले काटना कोई मनोहारी दृष्य नहीं; वह आत्मा को कोई मृदु संदेश देने वाली चीज नहीं।- हालांकि इसी सांप्रदायिकता की आग को बुझाने के क्रम में उनकी हत्या कर दी गई। बावजूद वे पूर्वाग्रह को किनारे रखकर सच्ची तस्वीर पेश करने में सफल रहे। पत्रकारीय मूल्य को आत्मसात् कर चीजों को वस्तुनिष्ठ तरीके से देखना, उनकी विशेषता रही।

यह तो रही आजादी पूर्व की दास्तां। अब तस्वीर बदली है। पत्रकारीय मूल्य में आई गिरावट ने इस मिशन प्रधान क्षेत्र को मुनाफा प्रधान में बदल दिया। विभिन्न मसलों को धार्मिक नजरीये से देखने की स्थिति ने देश और समाज को कई तरह से नुकसान पहुंचाया। 1984 ई. में हुए हिंदु-सिक्ख दंगा, भागलपुर दंगा, सीतामढ़ी दंगा, गुजरात का दंगा, बाबरी मस्जिद विध्वंस या फिर मुम्बई बम विस्फोट- कई ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिसमें खबरों को धर्म के आधार पर परखा गया। 1990 ई. में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान अफवाहों को खबर बनाकर प्रमुखता से छापा गया। इन खबरों से कई जगह दंगे भड़क उठे। आगरा से प्रकाशित ‘ आज ’ ने तो 11-23 दिसम्बर 1990 को खबर छापी कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविघालय के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल काॅलेज में भर्ती 32 मरीजों को जहरीला इंजेक्शन देकर हत्या कर दी गई है। खबर छपने के साथ ही माहौल गर्म हो उठा और कईयों को अपनी जान से हाथ घोना पड़ा। बाद में यह खबर गलत साबित हुई। ठीक इसी चरित्र जैसी खबरों को स्वतंत्र चेतना, स्वतंत्र भारत और दैनिक जागरण जैसे अखबारों ने भी छापा जो निराधार साबित हुआ। मीडिया के इस चरित्र पर जाने-माने मीडिया विषेशज्ञ सुधीश पचोरी ने लिखा है- 2007 ई. में अयोध्या में हुए शिलापूजन में मीडिया ने घंटों लाइव बिताए और देशभर में एक ‘अ-घटना’ को ‘बड़ी घटना’ बनाकर दिखाया। हम देखते हैं कि तब से मीडिया हर ऐसी हिन्दुत्ववादी घटना को इतना ज्यादा कवर करने लगा है कि गुजरात का मामूली-सा पादुका पूजन तक लाइव हो गया। इसका अर्थ यह हुआ कि मीडिया ने दर्शकों के बीच हिन्दुत्व को जमकर बेचने का काम किया। सेक्युलर विचारों को हाशिये तक पर नहीं रखा। (संदर्भ- मीडिया की परख)

क्या कारण है कि आम पत्रकार हिन्दु-मुस्लिम विवाद को निष्पक्ष नजरिये से नहीं देख पाता? जवाब आरक्षण विरोधी आंदोलन के वक्त उसकी भूमिका में देखा जा सकता है। जिस तरह अधिकतर पत्रकारों के हिन्दु रहने के कारण दलित और पिछड़ा वर्ग नहीं दिख पाया। उसी तरह हिन्दु-मुस्लिम विवाद में वे मुस्लिम पक्ष नहीं देख पाते। 9/11 के बाद अमेरिकी मीडिया पश्चिमी मीडिया की मुस्लिम विरोधी बातों ने हमारे यहां की मीडिया को भी प्रभावित किया है। पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर हम भी आतंकवाद अथवा आतंकवादी कार्रवाई को सीघे एक धर्म विशेष से जोड़ने लगते हैं। दलील यह दी जाती है कि उनके धर्मस्थलों में आतंकवादी बनने की तालीम दी जाती है। क्या यह सच है? आजादी के 60 सालों के बाद भी मुसलमान अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं-इसके पीछे कहीं-न-कहीं हमारी राजनीतिक व्यवस्था जिम्मेदार है। हम इन बातों को भूल जाते हैं और उन धर्मामवलंबी की नकारात्मक छवि अपने अवचेतन मन में बनाते हैं। ‘ मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ’- को स्वतंत्रता दिवस पर सुनना तो अच्छा लगता है लेकिन उसके मर्म को समझकर रिपार्टिंग करना, शायद कठिन? पूर्वाग्रह से प्ररित रिपोर्ट न सिर्फ पत्रकारीय कर्म की तिलांजली देते हैं बल्कि भारतीय समाज की बुनियाद ‘ अनेकता में एकता ’ को भी कमजोर करते हैं।

मार्क्स ने कहा है कि धर्म अफीम की तरह है। निश्चित तौर पर हमारा समाज अफीम की गोली खाकर सोया है। विभिन्न परेशानियों से जुझने के बावजूद हम अपने अधिकारों के लिए शायद ही खड़े होते हैं। सोचते हैं- ‘ जाहे विधि राखत राम ताहे विधि रहिये ’। लेकिन समाज का एक जिम्मेदार व्यक्ति (पत्रकार) भी अफिम की गोद में सोकर सूचनाओं का प्रसारण करेगा तो देश और समाज को क्या दिशा मिलेगी?

दरअसल, मीडिया मुसलमानों के प्रति खास नजरिया अपनाकर न सिर्फ भारतीय समाज को नुकसान पहुंचा रहा है बल्कि अपनी विश्वसनीयता भी खोता जा रहा है। जरूरी नहीं कि सारे मीडियाकर्मी एक ही विचार के हों, लेकिन उनमें मानवीय मूल्यों की गहरी समझ तो होनी आवश्यक है। स्वतंत्र, समझदार, निष्पक्ष और आघुनिक मीडिया के लिए जरूरी है कि पत्रकार न सिर्फ धर्मनिरपेक्ष ही हो बल्कि वह पंथनिरपेक्ष और जातिनिरपेक्ष भी हो। तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर ही हम समाज को रचनात्मक प्रेरणा दे सकेंगे और पत्रकारीय दायित्व की रक्षा कर सत्य को उजागर कर सकेंगे।

1 टिप्पणी:

MAYUR ने कहा…

sab jagah aisa nahi hai,aurab ye sthiti badal rahi hai, par phir bhi patrakar ...nirpesksh nahi hain kai mamlon main..aur sahi main ab mulyon wali patrakarita nahi rahi