रविवार, 6 दिसंबर 2009

एक सोची-समझी राजनीतिक साजिश!

क्या राजनीति की बिसात पर किसी ऐतिहासिक स्थल की कुर्बानी देनी सही है? नहीं, लेकिन बाबरी विध्वंस की घटना भारतीय राजनीति का वह काला अध्याय है, जिसमें संकीर्ण मानसिकता की वेदी पर एक ऐतिहासिक इमारत की आहूति दे दी गई। महज भगवान श्रीराम का जन्मस्थल होने की वजह से बाबरी मस्जिद को तोड़ा गया था। लेकिन उसे तोडऩे वाले लोग ही मर्यादा पुरुषोत्तम की नीति को भूल गए। श्रीराम के राज्य में सभी धर्मों के लोग एक साथ रहा करते थे और उनमें राग या द्वेष की कोई भावना नहीं थी, लेकिन विडंबना रही कि उनके पदचिन्हों का अनुसरण करने का दावा करने वाले उनके कथित भक्त ही धर्मों के आधार पर एक-दूसरे से झगडऩे लगे। आज तो न सिर्फ राम मंदिर के नाम पर राजनीतिक रोटी सेंकी जा रही है, बल्कि लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट के आधार पर राजनीतिक दल एक-दूसरे आरोप-प्रत्यारोप भी कर रहे हैं, लेकिन इस राजनीतिक घपलेबाजी में कोई भी सच्चा हिंदुस्तानी शायद ही इस बात से इंकार करेगा कि एक ऐतिहासिक इमारत को महज राजनीतिक कैरियर चमकाने के लिए विवादित बना दी गई है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि सहअस्तित्व ही भारतीयों की बुनियाद रही है और क्षुद्र राजनीति के लिए इस बुनियाद की नींव कमजोर नहीं की जा सकती। वैसे भी, अगर भविष्य में वहां राम मंदिर बन भी गया, तो भी क्या बाबरी मस्जिद के अस्तित्व को भुलाना आसान होगा?

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

मोहल्ला लाइव का सवाल और मेरा विचार : हम कब बोलेंगे ?

poll mohalla live

कोई हमारी गलतियां गिनाये और यथार्थ का आईना दिखाये, तो क्या हम उद्वेलित नहीं होते ? जब पड़ोसी हमसे कहता है कि मेरे घर का कचरा उसके मकान के सामने फैंका गया है, तो सही होने पर भी क्या हम उसे स्वीकारते हैं, उससे नहीं झगड़ते? जब कोई हम पर झूठा होने का तोहमत लगाता है, तो क्या हम उससे दो-दो हाथ करने को तैयार नहीं होते? तो, फिर आज हम क्यों खामोश हैं।

मोहल्ला लाइव का कल का प्रश्न हमारी खामोशी को टटोल रहा है। हमें तनिक भी बैचेनी नहीं हुई कि कोई हमें यह बता रहा है कि भोपाल गैस कांड के 25 वर्ष बीतने पर भी हम खामोश हैं। आखिर क्यों? सचाई का आईना देखने के बाद भी क्यों हमें ग़ुस्सा नहीं आया। शायद इसलिए, क्योंकि हम इससे जुड़े हुए नहीं हैं या फिर चुप रहने की हमारी आदत हो गयी है।

अमूमन ऐसा माना जाता है कि समाज में मूलत: दो तरह के लोग ही होते हैं। एक वे, जो जुल्म का विरोध करते हैं और दूसरे वे, जिन्हें दमन को चुपचाप सहना ज़्यादा मुफीद लगता है। लेकिन हाल के वर्षों में एक ऐसा वर्ग भी उभरा है, जो तब तक उद्वेलित नहीं होता, जब तक उसका अपना क़रीबी किसी हादसे का शिकार नहीं होता। यही कारण है कि यूनियन कार्बाइड की चपेट में आकर असमय मौत का शिकार बने सैकड़ों निदोर्षों की मौत की 25वीं बरसी पर भी हमें शांत रहना ज़्यादा अच्छा लगा, क्योंकि उसमें हमारे अपने नहीं थे।

आज के परिप्रेक्ष्य में यह कहना शायद ग़लत होगा कि क्रांति बंदूक की नली से निकलती है। लेकिन यह भी सही है कि समाज में आज भी बहरों की कमी नहीं और उन्हें सुनाने के लिए घमाके ज़रूरी हैं। कई ऐसे आंदोलन हमारे आस-पास शांतिप्रिय ढंग से अपनी गति में चलते दिख रहे हैं, लेकिन उन्हें पोषित करने या उनके साथ खड़े होने की हमने कभी ज़रूरत नहीं समझी। अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे नर्मदा बांध से विस्थापित लोगों को क्या अभी तक सफलता मिल पायी है? इरोम शर्मिला अभी तक अनशन पर बैठी हैं। अपवादों को छोड़ दें, तो मात्र वही व्यक्ति इस आंदोलन में मुखर होता है, जिसका कोई अपना इस तरह की त्रासदी का शिकार बनता है। ऐसे में देश के रणनीतिककारों पर दबाव बने, तो कैसे? हमारी चुप्पी उन्हें कैसे जगा पाएगी?

ऐसे में पास्‍तर नूमोलर की कविता First they came… बरबस याद हो आती है -

वे पहले यहूदियों को मारने आये,
और मैं चुप रहा
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वे साम्यवादियों को मारने आये
मैं फिर भी चुप रहा
क्योंकि मैं साम्यवादी नहीं था
वे श्रमिक संघों को मारने आये
मैं चुप रहा
क्योंकि मैं श्रमिकसंघी नहीं था
फिर वे मुझे मारने आये
और तब मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं रह गया था

क्या हम अभी भी अपनी बेबसी पर रोएंगे या खामोश रहेंगे या फिर मुखर विरोध कर सरकार की क्रूरता पर चीखेंगे? जवाब हमें अपने-आप में टटोलना होगा।

रविवार, 13 सितंबर 2009

आखिर क्यों करे इन बुजुर्गों का सम्मान?

सप्ताह का आखिरी दिन मेरे लिए कुछ खास होता है। इस दिन मेरी छुट्टी होती है और अपने मन-मुताबिक मैं अपनी दिनचर्या तय करता हूं। दिन का ज्यादातर समय अपने इष्ट-मित्र से मिलने में बीतता है और मुमकिन हुआ तो रात भी किसी दोस्त के घर पर ही गुजरती है।

खैर, इस शनिवार भी अपने एक मित्र से मिलने मैं घर से निकल पड़ा। दो दिनों से लगातार बारिश होने से मौसम सुहावना था, इसलिए छुट्टी का भरपुर लुत्फ उठाने के लिए मैं तैयार था। मित्र से मिलने का स्थान गोलचक्कर तय हुआ, इसलिए मैं उधर जा रहे एक ऑटो में सवार हो गया। ऑटो में तीन और सहयात्री मेरे साथ थे। अभी हमने थोड़ी दूरी ही तय की थी कि एक बुर्जुग भी उसी ऑटो में सवार हुए। उनके हाथ में एक बुझी हुई सिगरेट थी। अभी तक सब कुछ ठीक-ठाक था। लेकिन चंद मिनटों के बाद ही उन्होंने अपनी बुझी हुई सिगरेट सुलगा ली। चुकि वे किनारे की सीट पर थे, इसलिए उनके सिगरेट से निकल रहा धुंआ मेरी तरफ आ रहा था। मुझे धुओं से एलर्जी है। मैंने उनसे ससस्मान गुजारिश की कि वह सिगरेट बुझा लें, या मेरे उतरने के बाद अपनी तलब पूरी कर लें। मेरे इतना कहते ही वह छुटते हुए बोले, 'कहां जा रहे हो?'

मैंने कहा, 'गोलचक्कर'

'वह तो बहुत दूर है, तो क्या मैं इतनी देर सिगरेट न पीऊं। तेरे को दिक्कत हो रही है, तो उतर जा।'
उनका यह जवाब सुनकर मैं भौंचक रह गया। ऐसी अपेक्षा मैंने नहीं की थी।


यह इस फलसफे का पहला सीन था। मेरा सवाल है कि आखिर हम ऐसे बुजुर्गों की इज्जत क्यों करें? इन्हें हम 'अंकल-अंकल' कहकर क्यों संबोधित करे? लेकिन हम ऐसा करते हैं क्योंकि हमें जन्म के साथ ही यह घुट्टी पिला दी जाती है कि जो भी बुजुर्ग मिलें, उनका आदर करो। लेकिन क्या ऐसे बुजुर्ग आदर के लायक हैं? अगर इनके बेटे और बेटियां सिगरेट या अल्कोहल पीकर घर आती हैं, तो ये हाय-तौबा मचाते हैं। कहते हैं बेटा बिगड़ गया। लेकिन बेटे के बिगड़ऩे की राह किसने तैयार की? क्या इनके बेटे का गुणसूत्र इनसे अलग है। तो आखिर वह क्यों नहीं सिगरेट पीयें या भी कोई अन्य नशा करे? मेरा ख्याल है कि ऐसे ही बुजुर्ग यह कहते हुए पाए जाते हैं कि इनका अपना ही बेगाना हो गया और इन्हें बेआबरु होकर घर से निकाल दिया गया है।


हालांकि मैं बेटे की इस करतूत को सही नहीं ठहरा रहा, लेकिन ऐसे मामलों में हमेशा दोषी औलाद ही क्यों हो? सिक्के का दूसरा पहलू यह भी तो हो सकता है।


ऐसे बुजुर्गों पर आपकी क्या राय है?

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

संपादकगण बेबस करें गुमाश्‍तागीरी...

अभी अभी बीते आम चुनाव में खबरों को जब बाजार की सुनहली पालकी में झुला कर उपभोक्ता के सामने रखा गया, तो खूब हाय-तौबा मची। चारों ओर से यह आवाज उठने लगी कि पत्रकारीय मूल्य में गिरावट आ गयी है और ख़बरों को अर्थ के आधार पर तय किया जाने लगा है। आप कुछ भी छापें हमें फर्क नहीं पड़ता… और खबरों से खेलना ही आपकी पत्रकारिता है… जैसे जुमले प्रयोग होने लगे। लेकिन ऐसा नहीं है कि ख़बरों को मसाले की छौंक मारकर परोसने का धंधा हाल ही में शुरू हुआ है। बल्कि इस तथाकथित मज़बूत स्तंभ पर आर्थिक या यूं कहे मिलावट की पुताई आज़ादी के बाद से ही शुरु हो गयी थी।

संपादकगण बेबस करें गुमाश्‍तागीरी

यद्यपि पेट भर खाएं न बस फांके पनजीरी

बढ़ा-चढ़ा तो अख़बार का कारोबार है

पांति-पांति में पूंजीवादी प्रचार है

क्या तुमने सोचा था कभी काले-गोरे प्रेसपति

भोले पाठक समुदाय की हर लेंगे गति और मति...

बाबा नागार्जुन ने यह कविता 1950-52 में लिखी थी। इन पंक्तियों को समझने में शायद ही किसी को दिक्कत हो? यहां पूजींवाद और संपादक के बीच पनप रहे नये रिश्ते की तरफ इशारा किया गया है। हां यह बात और है कि अब जाकर भोले-भाले पाठक को यह बात समझ में आयी है। इसलिए बहस का मुद्दा यह नहीं होना चाहिए कि ख़बरों में मिलावट कितनी हो रही है? बल्कि सोचना यह होगा कि आख़‍िर क्यों एक पत्रकार सत्ता की दलाली करने पर मजबूर है?

पिछले महीने ही मेरी एक स्ट्रिंगर से मुलाकात हुई। उसने बताया कि उसे एक ख़बर के लिए महज दस रुपये मिलते हैं। अख़बार में रोज़ाना उसकी दो-तीन ख़बर छपती है। इस तरह देखें तो उसकी मासिक आमदनी करीब हजार-बारह सौ रुपये ही बनती है। ऐसे में आखिर कब तक वह ख़बरों से इंसाफ कर पाएगा? एयरकंडीशन सेमिनारों में हम-आप पत्रकारिता को गांवों से जोड़ने की वक़ालत करते है। चलो गांवों की ओर जैसे नारे बुलंद करते है। लेकिन हममें से कौन गांवों में जाकर आदर्श पत्रकारिता करने को उत्सुक है? जवाब अपवाद में ही होंगे। आज भी गांवों की जो हालत है किसी से छुपी नहीं है। यहां चाय-नाश्‍ते के आधार पर ख़बर गढ़ी जाती है। ऐसे में जब तक स्ट्रिंगर या छोटे पत्रकार को सुविधा नहीं दी जाएगी, तब तक आदर्श पत्रकारिता की बात बेमानी ही साबित होगी। हालांकि, इसका यह मतलब नहीं लगाना चाहिए कि स्टिंगर ही पत्रकारीय मूल्य में आ रही गिरावट के लिए ज़‍िम्‍मेदार हैं। दरअसल यहां भी पूंजीवादी व्यवस्था का प्रभाव है, और यह सारा खेल मठाधीश बने पत्रकारों का खेला हुआ है, जो अपना लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं।

अपने सौ वर्षों से अधिक का लंबा सफर तय करने के बाद अब तो मीडिया बाकायदा एक उद्योग बन गया है। और हर उद्योग का मक़सद ही होता है, मुनाफा कमाना। मीडियाकर्मी तो मात्र कलम की नौकरी करते हैं और हुक्म की तामील में हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। ऐसे में मीडिया को पत्रकारिता का पर्याय मानना ही मुगालते में रहना होगा। दिनोंदिन मीडिया मैनेजमेंट का दबाव भी इस कदर बढ़ रहा है कि समाचारों की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और तथ्यपरकता की बात बेमानी ही है। ये बात और है कि ख़बर को स्वतंत्र और निष्पक्ष समझने वाले दर्शक-पाठक को धोखा देने के बाद भी हम सिर उठाकर उनकी पत्रकारिता करने का दंभ भरते हैं।

दोस्तो, अब सोचना हम नई पीढ़ी को है। आत्ममंथन करें कि वाकई इस क्षेत्र में हम मिशन प्रधान पत्रकारिता करने आये हैं या उपभोग की संस्कृति का हिस्सा बनने? अगर नयी पौध भी पत्रकारीय मूल्य की तिलांजलि देकर ही पत्रकारिता करती है, तो वह भी उसी भीड़तंत्र का हिस्सा बनेगी, जिसकी नज़र में हाशिये पर खड़े आम आदमी की कोई कीमत नहीं। तब फिर बहस की बात बेमानी होगी?

सोमवार, 6 जुलाई 2009

बच्चा बच्चा हिंदुस्तानी मांग रहा है पानी

उत्तर प्रदेश का नोयडा औद्योगिक शहर के रूप में अपनी पहचान बना चुका है। तेजी से बढ़ रहे कंक्रीट के जाल इस शहर को नया रूप देने में कोई कोताही नहीं कर रहे। लेकिन मैंने जब इस शहर को नजदीक से देखा, तो मुझे हैरानी हुई कि यहां पीने का पानी उपलब्ध नहीं है। मीठा पानी खरीद कर यहां के वाशिंदे अपनी प्यास बूझाते हैं। वैसे मीठे जल को लेकर पर्यावरणविदों की चिंताएं यत्र-तत्र-सर्वत्र पढ़ता रहता हूं, लेकिन मैंने इस इलाके में जो देखा वह मेरे लिए बिल्कुल नया अनुभव है।

हाल ही में एक सर्वेक्षण पढ़ा था कि दिल्ली में 25 प्रतिशत लोगों को नहीं मालूम कि यमुना नदी दिल्ली से गुजरती है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि यहां के लोगो का सामान्य ज्ञान कमजोर है। बल्कि मेरा मानना है कि लोग अभी भी पानी को लेकर उतने जागरूक नहीं हुए हैं, जितने होने चाहिए। शायद इसलिए अपनी कुल लंबाई (22 किमी.) की मात्र दो प्रतिशत दिल्ली में बहने वाली यमुना में 80 फीसद प्रदूषण यहीं होता है। ''सेंटर फॉर साइंस एंड एंनवायरमेंट'' की सुनीता नारायण भी कहती है कि 'यमुना दिल्ली में दम तोड़ चुकी है, मात्र उसे दफनाया जाना है।' पानी की ठीक यही कहानी देश के बांकी हिस्सों में भी दिख रही है। बाढग़्रस्त इलाके को छोड़ दें तो कमोबेश भारत का सभी हिस्सा पानी के लिए संघर्ष कर रहा है। मध्यप्रदेश में पुलिस की देखरेख में पानी बांटी जा रही है (वह भी राशन कार्ड के आधार पर), दक्षिण के इलाकों में कई लोग पानी बिना काल के गाल में समा चुके हैं और तो और दिल्ली में ही प्रतिदिन 30 करोड़ गैलन पानी की कमी हो रही है।

आखिर ऐसा क्यों ? कौन है इस विकट स्थिति के लिए जिम्मेदार ? क्या नदी घाटी सभ्यता का अंत पानी नहीं मिलने के कारण होगा ? क्या पानी के लिए तीसरे विश्वयुद्घ की आशंका सही साबित होगी ? इन सवालों के जवाब हमें ही ढूढऩें होंगे। यहां मैं आपको रघुवीर सहाय की यह प्रसिद्ध कविता 'पानी' के साथ छोड़ रहा हूं-

पानी पानी
बच्चा बच्चा
हिंदुस्तानी
मांग रहा है पानी

जिसको पानी नहीं मिला है
वह धरती आजाद नहीं
उस पर हिंदुस्तानी बसते हैं
पर वह आबाद नहीं

पानी पानी
बच्चा बच्चा
मांग रहा है हिंदुस्तानी

जो पानी के मालिक हैं
भारत पर उनका कब्जा है
जहां न दे पानी वां सूखा
जहां दें वहां सब्जा है

अपना पानी
मांग रहा है
हिंदुस्तानी

बरसों पानी को तरसाया
जीवन से लाचार किया
बरसों जनता की गंगा पर
तुमने अत्याचार किया

हमको अक्षर नहीं दिया है
हमको पानी नहीं दिया
पानी नहीं दिया तो समझो
हमको बानी नहीं दिया

अपना पानी
अपनी बानी हिंदुस्तानी
बच्चा बच्चा मांग रहा है

धरती के अंदर का पानी
हमको बाहर लाने दो
अपनी धरती अपना पानी
अपनी रोटी खाने दो

पानी पानी पानी पानी
बच्चा बच्चा मांग रहा है
अपनी बानी
पानी पानी पानी पानी
पानी पानी

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

कंधमाल के डंक

चुनाव की सीढ़ीयां चढ़ कर ही लोकतंत्र मजबूत होता है। अगर इस सीढ़ी पर डर के साथ कदम रखा जाए तो शायद स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए चुनाव हो रहे है। 16 अप्रैल को पहले चरण के मतदान के साथ ही राजनीतिक तापमान भी चढता जा रहा है। लेकिन पहले चरण में एक ऐसे क्षेत्र में भी मतदान हुआ जहां के मतदाता वोट डालने से कतराते रहे।


अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा है कि लोकतंत्र का अर्थ है वह शासन जिसे जनता चुने,जो जनता के लिए हो और जिसे जनता चला रही हो। यानि लोकतंत्र की बुनियाद आम आवाम है,आम आवाज है। लेकिन अगर यह आवाम मतदान से डरने लगे तो क्या हमारा लोकतंत्र मजबूत होगा? उड़ीसा का कंधमाल भी एक ऐसा ही क्षेत्र है जहां इस बार लोग वोट डालने से कतराते रहे। यह वही कंधमाल है जहां पिछले साल खूनी होली खेली गई थी। यहां एक धर्मगुरू की हत्या हुई और उसके बाद दो समुदाय के बीच दंगा भड़क उठा था। हालात इतने बेकाबू हो गए कि लोगों को घर छोड़कर भागना पड़ा था। हालांकि घर फिर बस गए हैं और जीवन की गाड़ी भी पटरी पर लौट रही है, लेकिन लोग अभी भी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। वैसे प्रशासन का दावा रहा कि चुनाव में पर्याप्त सुरक्षा दिया गया और शायद इसी दावे का असर रहा कि लोग डरकर ही सही सीमित संख्या में घरों से निकले जरुर।


बहरहाल प्रशासन लोगों में समाए डर को कम करने की कोशिश तो कर रहा है। लेकिन बीते साल का अनुभव कंधमाल की आवाम को अभी भी डरा रहा है। ऐसे में भारत के लोकतंत्र की जीवंतता पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। लोकतंत्र तब तक जीवित है जब तक आवाम का विश्वास चुनाव पर है और वे बेखोफ वोट डालने जा रहे हों।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

जूता बनाम लोकतंत्र

इन दिनों नेताओं और जूतों में एक रिश्ता सा बनता जा रहा है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बुश पर जूते क्या चले नेताओं को जूते मारने का चलन सा चल पड़ा। चीनी नेता बेन जियाबाओ, गृहमंत्री पी.चिदंबरम,विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी, यहां तक कि अब अभिनेता जीतेन्द्र भी इस जूते चप्पल के खेल से बच नहीं सके। हालात इतने खराब हो गए हैं कि जूते-चप्पलों से बचने के लिए अब नेताओं को नई व्यवस्था करनी पड़ रही है। जिसकी झलक दिखी अहमदाबाद के नरोडा में, जहां भाजपा के स्टार प्रचारक और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जनता से मुखातिब होने वाले थे। किसी कोने से जूते न उछले इसलिए मंच के आगे भाग को जाल से घेर दिया गया था। अभी तक नरेन्द्र मोदी की तरफ जूते या चप्पल नहीं उछले हैं। लेकिन कहते हैं ना कि दुर्घटना से सुरक्षा भली है-इसलिए यह पूरी कवायद की गई।

खैर, मुद्दा यहां यह नही है कि नेताजी जूते खाने लायक हैं या नहीं। बल्कि हमें यह सोचना चाहिए कि इन घटनाओं से हमारे लोकतंत्र की जीवंतता पर कितना असर पड़ सकता है। ऐसी घटनाओं में हम उस व्यक्ति पर जूते चला रहे होते हैं जिसे हम खुद चुनकर संसद में पहुंचाते हैं। जिसे हम निर्णय लेने वाले हाथ भी कहते हैं। यानि हम अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों का ही जूतों से स्वागत करते हैं।

कहा गया है कि कोई घटना अगर पहली बार हो तो इतिहास बनता है, दो-तीन बार हो तो उसे त्रासदी कहते हैं लेकिन अगर वही घटना बार-बार हो तो वह उपहास का पात्र होता है। कुछ ऐसा ही भारत में भी दिख रहा है। जहां जूता मारना अब सियासी खेल बन चुका है। खबर तो यह भी है कि कानपुर के एक गांव में तो जूते मारने की बकायदा स्कूल खोली गई है। जहां बच्चे और बुजुर्ग नेता के एक पुतले पर जूते-चप्पल मारने का अभ्यास कर रहे हैं। हम यह लगभग भूल चुके हैं कि मुंतजर अल जैदी का विरोध तो एक ऐसे ‘तानाशाह’ के खिलाफ था जिसने इराक को अधोषित उपनिवेश बना रखा है।

इसमें दो राय नहीं कि नेताओं ने देश का बंटाधार किया है। लेकिन इसके लिए मात्र नेता ही दोषी नहीं हैं। कसूर अपने को अच्छे कहने वाले लोगों का भी है,जो राजनीति में आने के बजाय इसे गंदा खेल समझते हैं। नेताओं को जूते मारना ही सारी समस्याओं का समाधान नहीं है। हमारे पास वोट का भी तो अधिकार है जिसका बेहतर प्रयोग कर हम देश का भला कर सकते हैं। हलांकि ज्यादातर मतदाताओं की यह शिकायत रहती है कि उनके इलाके में कोई ईमानदार उम्मीदवार मैदान में नहीं है। लेकिन हम ईमानदार उम्मीदवार को भी संसद में कहाँ पहुंचाते हैं? नेताओं को जूते मारने से बेहतर है कि हम चुने हुए प्रतिनिधि को ‘वापस बुलाने के अधिकार’ के लिए लड़े। अभी भी जनांदोलन कितना कारगर है इसका बेहतर उदाहरण सूचना का अधिकार आंदोलन से समझा जा सकता है।

कोई भी काम सही रणनीति बनाकर की जाए तभी उसका परिणाम अच्छा होता है। गलत तत्वों वाले नेताओं से मुक्ति पाने के लिए भी हमें उचित तरीका ही अपनाना होगा। महज मीडिया में आने के लिए जूते चलाना उचित नहीं। जूते चलाकर हम मात्र विरोध के इस बढ़िया औजार का उपहास उड़ा रहे हैं। अभी जरुरत है बेहतर रणनीति बनाकर जनांदोलन को आगे बढ़ाया जाए।

सोमवार, 30 मार्च 2009

मुद्रास्फीति बनाम ‘वास्तविक’ महंगाई दर

मार्च के दूसरे सप्ताह, यानि 14 मार्च को समाप्त हुए हफ्तेमें महंगाई दर 0.27 फीसद दर्ज की गई है। हाल के सप्ताहों में लगातार लुढ़क रहे इस आंकड़े की यह दर 1977-78 के बाद की सबसे कम है। दिलचस्प है कि लगातार गिर रहे महंगाई दर को अर्थशास्त्री भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं बता रहे जबकि सरकार इसे अपनी उपलब्घी गिनाने में लगी है।

पिछले साल की ही बात है जब इस महंगाई दर ने आम आदमी को खूब रूलाया था। कारण था इसका दहाई के अंक को पार कर जाना। लेकिन अब जब यह शून्य के पास पहुंच गई है तो क्या आम आदमी खुश है? मंहगाई दर में आ रही लगातार गिरावट लोगों उतना शुकून दे रही है जितनी शिकन उनके चेहरे पर पिछले साल थी?

विश्व बाजार में कच्चे तेल, धातु और खाने के सामानों के महंगे होने से पिछले साल महंगाई दर बढ़ी थी। तर्क यह दिए गए कि अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में तेल के दाम चढ़ गए है साथ ही अमेरिका जैसे देश जैविक ईंधन बनाने में खाद्य फसलों का उपयोग कर रहे हैं। हलकान हो रही जनता के सवाल पर घिरी सरकार ने भी आर्थिक सुधार पर जोर दिया और ब्याज दरों में कटौती शुरू की। सरकार इन्हीं सुधारों को महंगाई दर कम होने का कारण बता रही है। लेकिन अपनी पीठ थपथपाने से पहले शायद वह यह भूल गई कि बाजार में मांग नहीं रहने के कारण ही मंहगाई दर घट रही है।

आर्थिक विश्लेषकों की मानें तो महंगाई की यह दर अब जीरो या डिफलेशन की ओर बढ़ रही है। डिफलेशन वह अवस्था होगी जब उत्पादन तो होगा लेकिन बाजार में मांग नहीं होगी। ऐसी स्थिति में भी सामानों के सस्ते होने के दावे आम लोगों के लिए महज भुलावा ही साबित हांेगे।

दरअसल, हमारे देश में महंगाई दर मापने की नीति ही गलत है। हम थोक मूल्य सुचकांक के आधार पर इस दर को मापते है। कच्चे तेल, धातु जैसे पदार्थ इस थोक मूल्य में होते हैं। इनमें दैनिक जरूरत के सामान कम ही होते है । यही कारण है कि थोक स्तर पर सामानों के दाम कम होने पर भी इसका असर बाजार मूल्य यानि उपभोक्ता मुल्य पर नहीं दिखता। आंकडेबाजी की ही बात करें तो अभी भी उपभोक्ता मूल्य 10 फीसद के आस-पास है। पिछले सप्ताह भी फल, सब्जियों, चावल, कुछ दाल, जौ और मक्के की कीमत में ०.1 प्रतिशत की वृद्धि ही दर्ज की गई है। साथ ही मैदा, सूजी, तेल, आयातित खाद्य तेल और गुड़ भी महंगंे हुए हैं।

सरकार चाहेे तो चीजों की कीमतों और महंगाई की दर में स्पष्ट रिश्ता कायम कर सकती है। ‘सरकारी’ महंगाई दर और ‘वास्तविक’ महंगाई दर में तभी संबंघ बनेगा जब एक बेहतर आर्थिक नीति बनेगी और उपभोक्ता मूल्य के आधार पर महंगाई दर तय किया जाएगा।

गुरुवार, 12 मार्च 2009

अगली होली में...

अगली होली में

अबीर-गुलाल याद करूंगा...

गालों पर लाली याद करूंगा...

कैंटीन के आगे जोर-जोर से ढ़ोलक बजाना याद करूंगा...

ओएसडी का डांटना याद करूंगा...

पेट भर ढ़डई पीना याद करूंगा...

दिन भर नशे में झूमना याद करूंगा ...

जी भर गुजिया और मट्ठी खाना याद करूंगा...

अमित का दिवाकर को गिराना याद करूंगा...

भांग का काजु-बादाम का शरबत याद करूंगा...

भांग की गोली के लिए ओझा सर की मिन्नतें करना याद करूंगा...

चमड़िया सर का प्यार से सिर पर हाथ फेरना याद करूंगा...

प्रधान सर का लंच याद करूंगा...

सच कहूं तो आईआईएमसी की होली याद करूंगा...

बुधवार, 4 मार्च 2009

पत्रकार को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए?

इलेस्ट्रेटेड विकली के संपादक अनिल धारकर ने 19-25 दिसंबर 1992 के अंक में अपनी संपादकीय टिप्पणी में सहकर्मियों के साथ हुई बैठक का जिक्र किया है। यह बैठक 6 दिसंबर के बाबरी मस्जिद विध्वंस की छाया में हो रही थी । एक ने पूछा,‘‘आप के पास आडवाणी के इस आरोप का क्या जवाब है कि जब कश्मीर में इतने सारे मंदिर तोड़े गए तब किसी ने चूॅ तक नहीं की, दूसरी ओर एक- सिर्फ-एक मस्जिद टूटी तो पूरा देश भड़क उठा?’’ दूसरे का मत था,‘‘हम लंबे अरसे से अल्पसंख्यकों की तरफदारी करते आये हैं।’’ एक और सहकर्मी ने शिकायत की ‘‘ बांग्लादेशी शरणार्थियों को हम क्यों आने देते हैं जबकि हमारे पास अपने लिए ही पर्याप्त साधन नहीं है। क्या केवल इसलिए नहीं कि वे अल्पसंख्यक हैं?‘‘( सदर्भ-भारतीय मुसलमानः मिथक और यर्थाथ)

यह इलेस्ट्रेटेड विकली के दफ्तर की तस्वीर मात्र ही नहीं है बल्कि यह इस ओर भी इंगित करती है कि पत्रकारीय मूल्य का कितना पतन हो चुका है? पत्रकारों के इन प्रश्नों के कई मर्म हैं। जिनमें मुख्य मुद्दा यह है कि जब उच्च शिक्षित वर्ग भी चीजों को केसरिया चश्में से देखेगा तो सड़क के आदमी से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह इन तरह की घटनाओं पर प्रतिक्रिया देते वक्त सांप्रदायिक बहाव में नहीं बहे? ऐसे में यह बहस लाजिमी है कि पत्रकार को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए अथवा नहीं।

पत्रकारीता का इतिहास काफी पुराना है। इस काल में पत्रकारों के लिए मुश्किल दौर भी आए और स्वर्णीम युग भी। पत्रकारों से हमेशा यह अपेक्षा की जाती रही है कि वह किसी भी मसले को धार्मिक चश्में से देखने के बजाय उसे निष्पक्षता की कसौटी पर तोले। सच्ची और सही तस्वीर पेश कर वह पत्रकारीय मूल्य को जीवित रखे। कहना गलत नहीं होगा कि कई ऐसे पत्रकार रहे हैं जिन्होंने पत्रकारीय मूल्य को जाति, धर्म और क्षेत्र से ज्यादा महत्व दिया। आजादी पूर्व की पत्रकारीता हमारे सामने है। तमाम मुश्किलों के बावजूद उस दौर के पत्रकारों ने अपने उसूलों और मजहबी एकता को टूटने नहीं दिया। यह दौर मिशन प्रधान था और मकसद थी, सिर्फ आजादी। इस मिशन को हिंदू-मुस्लिम जैसी कोई भावना प्रभावित नहीं कर सकी। मुल्क के प्रति वफादारी और हमदर्दी क्या होती है, इसका अंदाजा ‘पयामे-हिंद’ अखबार के संपादकों की शहादत से समझा जा सकता है। आजादी की लौ को जलाए रखने और ब्रिटिश सरकार का विरोध करने के कारण इस अखबार के कई संपादक शहीद हुए। मौत की सजा पाए सभी संपादकों का संबंध मुस्लिम कौम से था।

यहां गणेश शंकर विधार्थी का जिक्र लाजिमी है। सन् 1931 के कानपुर दंगे के बारे में विधार्थी ने लिखा था- रक्तपात ओर नरहत्या अच्छे काम नहीं। संसार के सुन्दर और सबल आदमियों का एक-दूसरे के गले काटना कोई मनोहारी दृष्य नहीं; वह आत्मा को कोई मृदु संदेश देने वाली चीज नहीं।- हालांकि इसी सांप्रदायिकता की आग को बुझाने के क्रम में उनकी हत्या कर दी गई। बावजूद वे पूर्वाग्रह को किनारे रखकर सच्ची तस्वीर पेश करने में सफल रहे। पत्रकारीय मूल्य को आत्मसात् कर चीजों को वस्तुनिष्ठ तरीके से देखना, उनकी विशेषता रही।

यह तो रही आजादी पूर्व की दास्तां। अब तस्वीर बदली है। पत्रकारीय मूल्य में आई गिरावट ने इस मिशन प्रधान क्षेत्र को मुनाफा प्रधान में बदल दिया। विभिन्न मसलों को धार्मिक नजरीये से देखने की स्थिति ने देश और समाज को कई तरह से नुकसान पहुंचाया। 1984 ई. में हुए हिंदु-सिक्ख दंगा, भागलपुर दंगा, सीतामढ़ी दंगा, गुजरात का दंगा, बाबरी मस्जिद विध्वंस या फिर मुम्बई बम विस्फोट- कई ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिसमें खबरों को धर्म के आधार पर परखा गया। 1990 ई. में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान अफवाहों को खबर बनाकर प्रमुखता से छापा गया। इन खबरों से कई जगह दंगे भड़क उठे। आगरा से प्रकाशित ‘ आज ’ ने तो 11-23 दिसम्बर 1990 को खबर छापी कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविघालय के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल काॅलेज में भर्ती 32 मरीजों को जहरीला इंजेक्शन देकर हत्या कर दी गई है। खबर छपने के साथ ही माहौल गर्म हो उठा और कईयों को अपनी जान से हाथ घोना पड़ा। बाद में यह खबर गलत साबित हुई। ठीक इसी चरित्र जैसी खबरों को स्वतंत्र चेतना, स्वतंत्र भारत और दैनिक जागरण जैसे अखबारों ने भी छापा जो निराधार साबित हुआ। मीडिया के इस चरित्र पर जाने-माने मीडिया विषेशज्ञ सुधीश पचोरी ने लिखा है- 2007 ई. में अयोध्या में हुए शिलापूजन में मीडिया ने घंटों लाइव बिताए और देशभर में एक ‘अ-घटना’ को ‘बड़ी घटना’ बनाकर दिखाया। हम देखते हैं कि तब से मीडिया हर ऐसी हिन्दुत्ववादी घटना को इतना ज्यादा कवर करने लगा है कि गुजरात का मामूली-सा पादुका पूजन तक लाइव हो गया। इसका अर्थ यह हुआ कि मीडिया ने दर्शकों के बीच हिन्दुत्व को जमकर बेचने का काम किया। सेक्युलर विचारों को हाशिये तक पर नहीं रखा। (संदर्भ- मीडिया की परख)

क्या कारण है कि आम पत्रकार हिन्दु-मुस्लिम विवाद को निष्पक्ष नजरिये से नहीं देख पाता? जवाब आरक्षण विरोधी आंदोलन के वक्त उसकी भूमिका में देखा जा सकता है। जिस तरह अधिकतर पत्रकारों के हिन्दु रहने के कारण दलित और पिछड़ा वर्ग नहीं दिख पाया। उसी तरह हिन्दु-मुस्लिम विवाद में वे मुस्लिम पक्ष नहीं देख पाते। 9/11 के बाद अमेरिकी मीडिया पश्चिमी मीडिया की मुस्लिम विरोधी बातों ने हमारे यहां की मीडिया को भी प्रभावित किया है। पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर हम भी आतंकवाद अथवा आतंकवादी कार्रवाई को सीघे एक धर्म विशेष से जोड़ने लगते हैं। दलील यह दी जाती है कि उनके धर्मस्थलों में आतंकवादी बनने की तालीम दी जाती है। क्या यह सच है? आजादी के 60 सालों के बाद भी मुसलमान अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं-इसके पीछे कहीं-न-कहीं हमारी राजनीतिक व्यवस्था जिम्मेदार है। हम इन बातों को भूल जाते हैं और उन धर्मामवलंबी की नकारात्मक छवि अपने अवचेतन मन में बनाते हैं। ‘ मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ’- को स्वतंत्रता दिवस पर सुनना तो अच्छा लगता है लेकिन उसके मर्म को समझकर रिपार्टिंग करना, शायद कठिन? पूर्वाग्रह से प्ररित रिपोर्ट न सिर्फ पत्रकारीय कर्म की तिलांजली देते हैं बल्कि भारतीय समाज की बुनियाद ‘ अनेकता में एकता ’ को भी कमजोर करते हैं।

मार्क्स ने कहा है कि धर्म अफीम की तरह है। निश्चित तौर पर हमारा समाज अफीम की गोली खाकर सोया है। विभिन्न परेशानियों से जुझने के बावजूद हम अपने अधिकारों के लिए शायद ही खड़े होते हैं। सोचते हैं- ‘ जाहे विधि राखत राम ताहे विधि रहिये ’। लेकिन समाज का एक जिम्मेदार व्यक्ति (पत्रकार) भी अफिम की गोद में सोकर सूचनाओं का प्रसारण करेगा तो देश और समाज को क्या दिशा मिलेगी?

दरअसल, मीडिया मुसलमानों के प्रति खास नजरिया अपनाकर न सिर्फ भारतीय समाज को नुकसान पहुंचा रहा है बल्कि अपनी विश्वसनीयता भी खोता जा रहा है। जरूरी नहीं कि सारे मीडियाकर्मी एक ही विचार के हों, लेकिन उनमें मानवीय मूल्यों की गहरी समझ तो होनी आवश्यक है। स्वतंत्र, समझदार, निष्पक्ष और आघुनिक मीडिया के लिए जरूरी है कि पत्रकार न सिर्फ धर्मनिरपेक्ष ही हो बल्कि वह पंथनिरपेक्ष और जातिनिरपेक्ष भी हो। तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर ही हम समाज को रचनात्मक प्रेरणा दे सकेंगे और पत्रकारीय दायित्व की रक्षा कर सत्य को उजागर कर सकेंगे।

सोमवार, 2 मार्च 2009

सुखराम: शर्ट रूप सुक्रम

सोमवार की सुबह पुस्तकालय में किताबों के बीच मुझे नागार्जुन रचनावली दिखी। इसके भाग-2 के पन्नों को पलटते वक्त मेरी नजर एक कविता पर टिक गई। यह कविता पी.वी. नरसिंहराव सरकार में केन्द्रीय संचार मंत्री रहे सुखराम पर लिखी गई है। 1996 ई. में लिखी गई इस कविता में सुखराम के बहाने सत्ता पर किए गए कटाक्ष को आप भी महसूस करें -

सुखराम: शर्ट रूप सुक्रम

अब तक कहां छिप थे

ये ‘भारत-रत्न’

हिमाचल में पैदा हुए...

पले-पुसे बड़े हुए

पी.वी. की गोद में

बैठे, 5 वर्ष तक मौज किया

संचार मंत्री रहे

पी.वी. ने प्यार से

पीठ सहलाई

अपने आप

जादुई तरीके से

नगदा-नगदी करोड़ों की रकम

लाॅकर में संचित

होती रही

3 करोड़ से ऊपर हो गई

परिवार की महिलाओं और

बाल-बच्चों के आभूषण...

हीरा-मोती-पन्ना-पुखराज

जड़ित गहने

और न जाने क्या-क्या

हिमाचल से बाहर, सुदूर

हैदराबाद(आंध्र) के बैंक के

अंदर लाॅकर से निकले हैं...



जय हो सुखराम की !

जय हो पी.वी. के

अंतरंग सखा की !!

मगर, दरअसल

‘सुखराम’ कोई एक

व्यक्ति नहीं गोत्र है-

पूरा का पूरा- पी.वी.

नरसिंह राव इस

गोत्र के बीज पुरुष हैं

राव अगर 5 वर्ष और

प्रधानमंत्री रह पाते तो

पट्ठा सुखराम

जाने क्या हो जाता !



सुखराम- शार्ट रूप

‘सुक्रम’ तब हो जाता

त्रिभुवनव्यापी-

‘इंटरकांटिनेंटल’

विश्व का महानगर

कोई शायद ही छूट पाता

सुक्रम की पचास -

पचपन मंजिली इमारतों से !

इयरबुक भर जाते

सुक्रम से ...


18 अगस्त 1996

मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा ...

पं0 भीमसेन जोशी की आवाज में आपने ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा’ गाने को दूरदर्शन पर बराबर देखा होगा। इस संगीतमय प्रस्तुती में भारत की पहचान ‘अनेकता में एकता’ दिखती है। 80 के दशक में आई इस गाने की जीवंत तस्वीर अगर देखनी हो तो आपका सूरजकुण्ड मेले में स्वागत है।

अरावली की वादियों में लगने वाले इस खूबसूरत ‘अन्तर्राष्ट्रीय क्राफ्ट मेले’ को हरियाणा सरकार आयोजित करती है। इस बार मेला का थीम मध्यप्रदेश है। इसकी झलक मेले के प्रवेशद्वार के समीप ही बनी प्रसिद्ध भीम बेटका की पहाड़ी की कलाकृति से दिखने लगेगी। इसके साथ ही मेले परिसर में ही बने ‘अपना घर’ में भील जाति को नजदीक से जानने का मौका भी आपको मिलेगा। इस मेले में प्रायः हरेक राज्यों से आए हस्तशिल्पी भाग लेते है और अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। लेकिन जो बात इस मेले को अन्य मेलों से अलग करती है वह है, इसमें दिखने वाले लोकनृत्य। इसके लिए मेले में ‘चैपाल’ बनाया गया है, जहां कलाकार हर दिन अपने नृत्य को प्रस्तुत करते हैं। लेकिन इसके साथ ही अलग-अलग जगहों पर मंडली जमाए कुछ कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते भी दिखते हैं।

‘लाज बचाओ गजानन...’ गाने की घुन पर कठपुतलीयों की लचकती कमर आपको बरबस ही रूकने को मजबूर करेंगे। यह नृत्य अमरसिंह राठौड़ और सलावत खान की आगरे में हुई लड़ाई पर आघारित है। राजस्थान के इस प्रसिद्ध लोकनृत्य को तेजपाल नागोरी अपनी टीम के साथ मेले में लेकर आए हैं। चंद कदम दूर ही मध्यप्रदेश की काठी नृत्य भी आपको दिखेगी। इस नृत्य की विशेषता है कि इसका प्रदर्शन दीपावली के बाद के एकादशी से महाशिवरात्री तक यानि तेरह महीना तेरह दिन तक ही होता है। यह सृष्टी निर्माण की पौराणिक कथाओं से संबंघित है। मध्य प्रदेश कला परिषद् की तरफ से मांगीलाल मालवीय की टुकड़ी इसका यहां प्रदर्शन कर रही हैं। मेले में जिस लोकनृत्य की थाप दूर से ही सुनी जा रही है, वह है वृज रसिया नाच। यह नाच हरियाणा के मुख्य लोककलाओं में एक है। इस नाच में बजते नगाड़े की तेज और दिलकश आवाज आपके कदमों को बरबस ही थिरकने को मजबूर करेंगी। युवाओं की फौज तो मानो यहां से हटने को तैयार ही नहीं होती। इसके अलावा महाराष्ट्र, आँध्रप्रदेश सहित कई राज्यों के कलाकार भी आपको झुमाने को तैयार दिखेंगे। कला का सुरूर इस कदर आप पर चढ़ेगा कि चाहकर भी आप इससे नहीं बच सकते।

निश्चित तौर पर, मेले में कई सुर हैं और इन सुरों से सजी संगीत अनूठी। सूरों की यह महफिल इतनी दिलकश कि आप ‘‘वाह वाह...’’ कहे बिना नहीं रह सकते। तो भारत को समझने चलें सूरजकुण्ड...

सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

पटरी पर सरकती जिंदगी!

पिछले दिनों संसद में अंतरिम रेल बजट पेश किया गया। रेल बजट पर केन्द्रित लैब जर्नल के लिए मुझे एक रिपोर्ट लिखना था। इसलिए मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की तरफ निकल पड़ा। रेलवे अघिकारियों से अनुमति लेने जब मैं पटरियों से गुजर रहा था तब मुझे आदित्य दिखाई दिए। आदित्य के बहाने मुझे गैंगमेनों की स्थिती जानने का मौका मिला ....

गैंगमैन आदित्य कुमार पिछले बीस वर्षों से रेलवे की सेवा कर रहे हैं। ये उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के रहने वाले हैं। इनकी नौकरी जब लगी थी तो परिवार खुशी से फूले नहीं समा रहा था। गरीब आदित्य की जिंदगी का यह सबसे हसीन पल था। घर छोड़कर ये कमाने दिल्ली आ गए। विश्वास था कि रेलवे इन्हे घर जैसा माहौल तो नहीं, कम-से-कम घर तो देगा ही। लेकिन इतने साल बीतने के बाद भी इन्हे एक अदद ‘घर’ की तलाश है। कहने को तो रेलवे ने इन्हे घर दिया है लेकिन उसे घर की तुलना में झुग्गी कहना ज्यादा सही होगा।
यह कहानी केवल आदित्य की ही नहीं है। यह उन सब परिवारों की दास्तां है जो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास बनाये गए ‘इस्ट इंट्री रोड झुग्गी’ के निवासी हैं। यह झुग्गी करीब चालीस वर्ष पुरानी है और यहां करीब 100 परिवारों का बसेरा है। रेलवे अपने चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों के प्रति कितना संवेदनशील है इसकी बानगी यहां दिखती है?
इन कर्मचारियों के घरों की कई ‘विशेषताएं’ हैं। कई तो काफी जर्जर हो चुके हैं तो कई गिरने की हालत में हैं। इन घरों में बिना झुके घुसा नहीं जा सकता। दीवारें भी ऐसी मानो छूते ही गिर जाऐंगी। शौचालय की भी यहां कोई ठोस व्यवस्था नहीं। बारिश के मौसम में छत पर पाॅलिथीन की चादर डालना इनकी मजबूरी हैं।ऐसी बात नहीं कि इनके बदहाल जीवन को लेकर आवाज न उठाई गई हो। इनके संगठन आॅल इंडिया एससी/एसटी रेलवे इम्प्लॅायज एशोशियेसन ने आंदोलन किया तो इन्हें आंगनबाड़ी केन्द्र का तोहफा मिला। इसके बावजूद अभी भी यहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। वैसे ‘सलाम बालक’ जैसे कुछ संगठन भी इन जगहों पर सक्रिय हैं, जो इनके बच्चों पढातें हैं।




आदित्य से मिलकर पता लगा कि पटरियों पर रेल की सुरक्षित दौड़ सुनिश्चित करने वाले कर्मचारी कितनी असुरक्षा में अपना जीवन बसर कर रहे हैं। घर के अभाव में झुग्गी में रह रहे इन कर्मचारियों की जीवन पटरी पर कब दौड़ेगी यह तो वक्त बताएगा? फिलहाल रेलवे की नीति से ये सरकने को मजबूर हैं?

शनिवार, 24 जनवरी 2009

सुरमयी अंखियों में बसा संजय वन

रंग बिरंगे और सुगंधित,
फूलों से कुतंल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले,
शंख सरीखे सुधड़ गालों में ...
बाबा नागार्जुन की यह पंक्ति संजय वन के सौंदर्य को बखुबी परिभाषित करती है। संजय वन दिल्ली के महत्वपूर्ण वनों में एक है जहां की सुरमयी सुबह कई मामलों में अन्य वनों से अलग है।
यह वन करीब 626 हेक्टेयर में फैला है। पूरब में यह ऐतिहासिक कुतुब मीनार, पश्चिम में जेएनयू, उत्तर में कटवरिया सराय और दक्षिण में महरौली को छुता है।
दिल्ली के खुबसूरत वनों में एक संजय वन की सुबह मनोहारी होती है। गुलाबी ठंडक में विचरते मोरों का झुण्ड, नीलगायों की चहलकदमी, और खरगोशों की अठखेलियों को देखना आंखों को सकुन देता है। इन सबके बीच विभिन्न पक्षियों की स्वर लहरियां भी कानों में मधुर रस धोलती है।
अरावली पहाड़ी का क्षेत्र होने के कारण यह वन अपने में कई खुबसुरत पेड़ों और छोटे-छोटे पर्वतों को समेटे हुए है। यहां कींकर, टीटू जैसे पेड़ों की छाया तो मिलेगी ही साथ ही केला और अमरूद का स्वाद भी चखने को मिलेगा। कंकड़ीली पगडंडी पर इन मैदानी फलों को खाते हुए चलना ठीक वैसा ही अनुभव है जो अनुभव गन्ने के खेत में गन्ना चबाते हुए चलने में होता है। हां, अगर चलते-चलते आप थक जाएं तो आप इस वन के बीचोबीच बने पार्क में आराम भी कर सकते है। इस पार्क में न सिर्फ बड़ों के लिए आराम करने की जगह है बल्कि बच्चों के मनोरंजन के लिए तरह-तरह के झूले भी हैं।
यहां सुबह-शाम धुमने आने वाले लोगों की कमी नहीं। इनकी तादाद लगातार बढ़ ही रही है। क्या कारण है कि यहां आने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है? जवाब राज कुमार टोकस देते हैं। ये नियमित यहां धुमने आते है और कटवरिया सराय में फूलों का व्यवसाय चलाते हैं। इनका कहना है कि यहां लोगों के आने का मुख्य कारण वन की खुबसूरत प्राकृतिक छटा तो है ही साथ ही इस वन क्षेत्र में स्थापित गोरक्षनाथ मंदिर भी है जो स्थानीय निवासियों के आस्था का महत्वपूर्ण केन्द्र है। इस मंदिर में मेला का भी आयोजन होता है। अक्टूबर में होने वाले इस मेले में गुरू गोरक्षनाथ के सैंकड़ों भक्त भाग लेते है। लेकिन श्री टोकस की राय से उनके मित्र श्याम सिंह तंवर सहमत नहीं हैं। तंवर, जो मार्बल का व्यापार करते हैं, कहते हैं कि शहर में काफी शोर-शराबा है और हर व्यक्ति तनाव में जीता दिखता है। इस भागमभग भरी जीवनशेली में इन जंगलों में ही आराम मिलता है। हंसकर सलाह की मुद्रा में श्री तंवर कहते हैं कि असल में पेड़-पौधों की गोद में ही मनुष्य शान्ति से जी सकता ।
बहरहाल अपनी खुबसुरती से लोगों को लुभाने वाले इस वन के देखरेख का जिम्मा दिल्ली विकास प्राधिकरण के पास है। यह लगातार यहां विकास कार्यों को कर रहा है।