मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

समाचारपत्र का भविष्य

‘‘2040 ई।में अमेरिका में किसी भी समाचारपत्र की अंतिम प्रति छपेगी ‘‘ (द वेनेशिंग न्यूजपेपर)। फिलिप मेयर की इस भविष्यवाणी के बाद समाचारपत्र के भविष्य को लेकर बहसें तेज होने लगी और कहा जाने लगा कि तकनीक के हावी होने से समाचारपत्र खत्म हो जाऐंगे। लेकिन मेरी राय मेयर साहब की राय से मेल नहीं खाती। मेयर साहब का यह विश्लेसन अमेरिका/ब्रिटेन जैसे विकसीत देशों के लिए संभवतः सही हो भी सकता है,जहां अखबार अपनी विश्वसनीयता खो रहे है। मगर ‘सब धान बाइस पसेरी‘नहीं होते। विकासशील और अविकसीत देशों में भविष्य में भी समाचारपत्र ही सूचना के महत्वपूर्ण साधन बने रहेंगे।
90 के दशक में अचानक विश्व में सेटेलाइट चैनलों की बाढ़ आ गई। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। स्टार टीवी,जी टीवी और न जाने कितने ही चैनल घरों में घुस गए। लगा कि सूचना सर्वसुलभ हो गई,और अखबारों पर हमारी निर्भरता कम हो गई। लेकिन नहीं,सूचना को उपयोग की वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया गया। राजीव शुक्ल भारतीय विमान अपहरण का उदाहरण देते हुए लिखते हैं कि नेपाल से भारत आ रहे विमान का जब अपहरण हुआ तो इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इतनी उल्टी सूचनाएं दी कि आम भारतीयों के सर ही चकरा गए। लोगों को बताया गया कि अपहृत खिली धूप का आनंद ले रहे हैं जबकि मुक्त आए लोगों ने ठीक इसके उलट जानकारी दी।ठीक इसी तरह नई-नई वेबसाइटों को लेकर अभी भी आम भारतीयों के मन में संदेह बना हुआ है। तहलका डाॅट काॅम ने जोर-शोर से मनोज प्रभाकर को लेकर मैच फिक्सींग का भांडा फोड़ने का प्रयास किया लेकिन हुआ क्या? खुद मनोज अपनी जाल में फंसते नजर आए,सूचना को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया।
मैं इंटरनेट के खिलाफ नहीं हूॅ लेकिन मेरा मानना है कि लोगों ने सूचना के इस नए रूप का गर्मजोशी से स्वागत नहीं किया। हालाॅकि इंटरनेट अभी तक बड़े शहरों की ही शान बना हुआ है जबकि कई वेबसाइट अस्त-व्यस्त स्थिति में चल रही हैं या दम तोड़ रही है। एलूल ने अपनी पुस्तक ‘ द टेक्नोलोजिकल सोसायटी ‘में लिखा है कि वर्तमान समय में मानव जीवन के तकनीकि अतिविशेषीकरण ने उसे विवश कर दिया है कि वह एक बंद कमरे में रहे। आस-पड़ोस में क्या हो रहा है कुछ पता ही नहीं चलता। एलूल की यह बातें टीवी पर बिल्कुल सही बैठती है। टीवी ने परिवारों में भाषाहीनता की स्थिति उत्पन्न कर दी है। व्यक्ति-से-व्यक्ति की बातचीत एकतान टेलीविजन देखने-सुनने में डूब गई है।
बात ‘इलेक्ट्रानिक पेपर ‘की भी हो रही है। इस पर शोध विश्वप्रसिद्ध संस्थान ‘ मेसाचुसेट्स इंस्टीच्यूट आॅफ टेक्नोलाॅजी ‘ में पिछले कई सालों से हो रहा है। बताया जा रहा है कि इसके आने के बाद जैसी खबर आप चाहेंगे वैसी ही आपको दिखेगी। लेकिन हमारे देश में अखबार केवल सूचना का माध्यम ही नहीं है बल्कि हमारी दैनिक जरूरतों की पूर्ति भी अन्य कई तरीकों से करता है। क्या इलेक्ट्राॅनिक परदे को कोई गृहणी रद्दी के भाव बेच सकेंगी? कागज की थैलियाॅ कैसे बनेगी? गरीबों के सोने-बिछाने में कौन से पेपर उपयोग में लाए जाऐंगे? वैसे भी, किसी सूचना का संप्रेषण किसी माध्यम से कितना लोकतांत्रिक ढ़ग से हो रहा है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि सूचना का कितना प्रतिशत अंश कतार के अंतिम व्यक्ति तक पहुॅच रहा है? निश्चित तौर पर भारत जैसे देश में जहाॅ कई गांवों में अभी टेलीफोन की सुविधा भी ठीक तरह से उपलब्ध नहीं है वहाॅ इंटरनेट की बातें करना बेमानी ही होगी
वर्ल्ड एस्सोसिअशन ऑफ़ न्यूजपेपर की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय समाचारपत्र की प्रसार संख्या 2001-05 के दौरान तैंतीस प्रतिशत बढ़कर 7।86 करोड़ तक पहुॅच गई है। जबकि वैश्विक स्तर पर 9.95 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। भारत और चीन में तो पिछले एक साल में 1.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि पिछले पाॅच सालों में 8.7 फीसद की वृद्धि होकर प्रसार संख्या 51 करोड़ तक पहुॅच गई है। अगर एशिया महादेश की बात करें तो इस सबसे बड़े महादेश में समाचारपत्रों की प्रसार संख्या में 0.04 प्रतिशत की बढ़ोतरी ही हुई है।
दोस्तों, इलेक्ट्रानिक मीडिया में आकर्षण जरूर है लेकिन इसकी अपनी सीमांए भी है। यह तमाम मुद्दों को एक साथ विस्तार से नहीं रख सकता क्योंकि इसके साथ समय और स्थान का बंधन है। यह मनोरंजन का बेहतर साधन हो सकता है मगर पाठकों की बौद्धिक भूख मिटाने की क्षमता तो अखबारों में ही है। वहीं अखबारों के साथ हमारा भावात्मक लगाव भी होता है जबकि टीवी के साथ ऐसा नहीं होता। हम चैनल लगातार बदलते रहतें हैं, हमारे अंदर बैचेनी होती है और हम किसी चैनल के साथ वफादार नहीं हो पाते। लेकिन हम रोज पेपर बदल-बदल कर नहीं पढ़ते। अनेक ऐसे लोग हैं जिनके नथुने अखबारी कागज और उसकी स्याही की मादक गंध के आदी हैं। साथ ही अखबार का सामाजिक सरोकार इस पर हमारा विश्वास बढ़ाता है।
मूलतः अखबार के भविष्य पर ही लोकतंत्र का भविष्य टिका है। आर्थिक गुलामी की कगार पर खड़े देश को बचाने के लिए जरूरी है कि अखबार जनता में अपनी विश्वसनीयता कायम रखे और अपने व्यवसायिक हितों और जनहित के बीच एक ईमानदार संतुलन कायम करे। साथ ही सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखते हुए ‘ अनमेट नीड ग्रोथ ‘ काॅन्सेप्ट पर काम करे, यानि जो लोग अखबार पढ़ना चाहते हैं लेकिन किन्ही कारणवश पढ़ नहीं पाते उन तक पहुॅचे। आॅकड़े बता रहे हैं कि भारत में ही इन लोगों की संख्या 35 करोड़ है। इसके अतिरिक्त, अखबारों में बहुलता और विविधता भी दिखे क्योंकि विविधता लोकतंत्र को मजबूत बनाती है। अगर इसी विश्वास पर अखबार काम करे तो समाचारपत्रों का ही नहीं बल्कि देश का भी भविष्य उज्जवल है क्योंकि अखबारों का भविष्य देश के भविष्य से अलग नहीं हो सकता।

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

जल या जहर

जीवन का मुख्य आधार जल अब जहर बनता जा रहा है । कुल भूभाग के ७५% भाग पर बहते इस मुख्य संसाधन के एक महत्वपूर्ण स्त्रोत भूजल में बढ़ रही फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा अगर अपनी रफ्तार से बढती रही तो शायद वह दिन दूर नही जब जल ही जीवन है की उक्ति जल ही जहर है कही जाने लगे ।आंकड़े बता रहे है की पूरे विश्व में रोजाना ४००० लोगो की मृत्यु प्रदुषित पानी से हो रही है । ठीक इसी तरह भारत में कुल मृत्यु के ७.५% मृत्यु का कारक जहरीला पानी ही है । विश्व स्वाथ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में २००७ में १६ लाख लोगो की मोत दुसित पानी के सेवन से हुई है । जबकि यह संख्या इस साल मई तक ७ लाख ८० हजार तक जा पहुंची है । रिपोर्ट कह रहे है की इन मोंतो के पीछे भूजल में बढ़ रही floride और आर्सेनिक की मात्रा है जो लगातार बढ़ रही है। देश में लगभग ६०० जिले है और इन में से तकरीबन २०० जिलो के चापाकल से लिए गए नमूने के पानी में floride और आर्सेनिक की मात्रा उचित सीमा से ज्यादा पाए गए है । सबसे ज्यादा आर्सेनिक तो पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में पाए गए है । अगर राज्यवार चर्चा करे तो सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य राजस्थान है जिसके ३२ जिले इसकी चपेट में है जबकि गुजरात के १८ जिले ,उडीसा के १७ जिले और बिहार के १२ जिलो की स्थिति लगातार बिगड़ रही है ।बहरहाल इस जहर को रोकने के प्रयास भी किए जा रहे है लेकिन सरकारी प्रक्रिया का जटिल जंजाल इसकी गति को धीमा कर रहा है। इसलिए स्वस्थ भविष्य के लिए हमें स्वयं इसका हल ढूँढना होगा ।वक्त है अब सामूहिक प्रयास का, जिसके अंतर्गत अब न सिर्फ़ भूजल को शुद्ध करने की जरुरत है बल्कि वर्षा जल को जमा कर और परिष्कृत कर उसका अधिक से अधिक उपयोग कैसे हो -इस पर भी व्यापक बहस की जाए तथा बेहतर वैज्ञानिक उपकरण खोजे जाए । इसके आलावा रिवर्स ओस्मोसिस की प्रक्रिया को शुरू कर भी इस संसाधन को जहर बनने से रोका जा सकता है ।