रविवार, 6 दिसंबर 2009

एक सोची-समझी राजनीतिक साजिश!

क्या राजनीति की बिसात पर किसी ऐतिहासिक स्थल की कुर्बानी देनी सही है? नहीं, लेकिन बाबरी विध्वंस की घटना भारतीय राजनीति का वह काला अध्याय है, जिसमें संकीर्ण मानसिकता की वेदी पर एक ऐतिहासिक इमारत की आहूति दे दी गई। महज भगवान श्रीराम का जन्मस्थल होने की वजह से बाबरी मस्जिद को तोड़ा गया था। लेकिन उसे तोडऩे वाले लोग ही मर्यादा पुरुषोत्तम की नीति को भूल गए। श्रीराम के राज्य में सभी धर्मों के लोग एक साथ रहा करते थे और उनमें राग या द्वेष की कोई भावना नहीं थी, लेकिन विडंबना रही कि उनके पदचिन्हों का अनुसरण करने का दावा करने वाले उनके कथित भक्त ही धर्मों के आधार पर एक-दूसरे से झगडऩे लगे। आज तो न सिर्फ राम मंदिर के नाम पर राजनीतिक रोटी सेंकी जा रही है, बल्कि लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट के आधार पर राजनीतिक दल एक-दूसरे आरोप-प्रत्यारोप भी कर रहे हैं, लेकिन इस राजनीतिक घपलेबाजी में कोई भी सच्चा हिंदुस्तानी शायद ही इस बात से इंकार करेगा कि एक ऐतिहासिक इमारत को महज राजनीतिक कैरियर चमकाने के लिए विवादित बना दी गई है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि सहअस्तित्व ही भारतीयों की बुनियाद रही है और क्षुद्र राजनीति के लिए इस बुनियाद की नींव कमजोर नहीं की जा सकती। वैसे भी, अगर भविष्य में वहां राम मंदिर बन भी गया, तो भी क्या बाबरी मस्जिद के अस्तित्व को भुलाना आसान होगा?

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

मोहल्ला लाइव का सवाल और मेरा विचार : हम कब बोलेंगे ?

poll mohalla live

कोई हमारी गलतियां गिनाये और यथार्थ का आईना दिखाये, तो क्या हम उद्वेलित नहीं होते ? जब पड़ोसी हमसे कहता है कि मेरे घर का कचरा उसके मकान के सामने फैंका गया है, तो सही होने पर भी क्या हम उसे स्वीकारते हैं, उससे नहीं झगड़ते? जब कोई हम पर झूठा होने का तोहमत लगाता है, तो क्या हम उससे दो-दो हाथ करने को तैयार नहीं होते? तो, फिर आज हम क्यों खामोश हैं।

मोहल्ला लाइव का कल का प्रश्न हमारी खामोशी को टटोल रहा है। हमें तनिक भी बैचेनी नहीं हुई कि कोई हमें यह बता रहा है कि भोपाल गैस कांड के 25 वर्ष बीतने पर भी हम खामोश हैं। आखिर क्यों? सचाई का आईना देखने के बाद भी क्यों हमें ग़ुस्सा नहीं आया। शायद इसलिए, क्योंकि हम इससे जुड़े हुए नहीं हैं या फिर चुप रहने की हमारी आदत हो गयी है।

अमूमन ऐसा माना जाता है कि समाज में मूलत: दो तरह के लोग ही होते हैं। एक वे, जो जुल्म का विरोध करते हैं और दूसरे वे, जिन्हें दमन को चुपचाप सहना ज़्यादा मुफीद लगता है। लेकिन हाल के वर्षों में एक ऐसा वर्ग भी उभरा है, जो तब तक उद्वेलित नहीं होता, जब तक उसका अपना क़रीबी किसी हादसे का शिकार नहीं होता। यही कारण है कि यूनियन कार्बाइड की चपेट में आकर असमय मौत का शिकार बने सैकड़ों निदोर्षों की मौत की 25वीं बरसी पर भी हमें शांत रहना ज़्यादा अच्छा लगा, क्योंकि उसमें हमारे अपने नहीं थे।

आज के परिप्रेक्ष्य में यह कहना शायद ग़लत होगा कि क्रांति बंदूक की नली से निकलती है। लेकिन यह भी सही है कि समाज में आज भी बहरों की कमी नहीं और उन्हें सुनाने के लिए घमाके ज़रूरी हैं। कई ऐसे आंदोलन हमारे आस-पास शांतिप्रिय ढंग से अपनी गति में चलते दिख रहे हैं, लेकिन उन्हें पोषित करने या उनके साथ खड़े होने की हमने कभी ज़रूरत नहीं समझी। अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे नर्मदा बांध से विस्थापित लोगों को क्या अभी तक सफलता मिल पायी है? इरोम शर्मिला अभी तक अनशन पर बैठी हैं। अपवादों को छोड़ दें, तो मात्र वही व्यक्ति इस आंदोलन में मुखर होता है, जिसका कोई अपना इस तरह की त्रासदी का शिकार बनता है। ऐसे में देश के रणनीतिककारों पर दबाव बने, तो कैसे? हमारी चुप्पी उन्हें कैसे जगा पाएगी?

ऐसे में पास्‍तर नूमोलर की कविता First they came… बरबस याद हो आती है -

वे पहले यहूदियों को मारने आये,
और मैं चुप रहा
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वे साम्यवादियों को मारने आये
मैं फिर भी चुप रहा
क्योंकि मैं साम्यवादी नहीं था
वे श्रमिक संघों को मारने आये
मैं चुप रहा
क्योंकि मैं श्रमिकसंघी नहीं था
फिर वे मुझे मारने आये
और तब मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं रह गया था

क्या हम अभी भी अपनी बेबसी पर रोएंगे या खामोश रहेंगे या फिर मुखर विरोध कर सरकार की क्रूरता पर चीखेंगे? जवाब हमें अपने-आप में टटोलना होगा।