शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

कंधमाल के डंक

चुनाव की सीढ़ीयां चढ़ कर ही लोकतंत्र मजबूत होता है। अगर इस सीढ़ी पर डर के साथ कदम रखा जाए तो शायद स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए चुनाव हो रहे है। 16 अप्रैल को पहले चरण के मतदान के साथ ही राजनीतिक तापमान भी चढता जा रहा है। लेकिन पहले चरण में एक ऐसे क्षेत्र में भी मतदान हुआ जहां के मतदाता वोट डालने से कतराते रहे।


अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा है कि लोकतंत्र का अर्थ है वह शासन जिसे जनता चुने,जो जनता के लिए हो और जिसे जनता चला रही हो। यानि लोकतंत्र की बुनियाद आम आवाम है,आम आवाज है। लेकिन अगर यह आवाम मतदान से डरने लगे तो क्या हमारा लोकतंत्र मजबूत होगा? उड़ीसा का कंधमाल भी एक ऐसा ही क्षेत्र है जहां इस बार लोग वोट डालने से कतराते रहे। यह वही कंधमाल है जहां पिछले साल खूनी होली खेली गई थी। यहां एक धर्मगुरू की हत्या हुई और उसके बाद दो समुदाय के बीच दंगा भड़क उठा था। हालात इतने बेकाबू हो गए कि लोगों को घर छोड़कर भागना पड़ा था। हालांकि घर फिर बस गए हैं और जीवन की गाड़ी भी पटरी पर लौट रही है, लेकिन लोग अभी भी असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। वैसे प्रशासन का दावा रहा कि चुनाव में पर्याप्त सुरक्षा दिया गया और शायद इसी दावे का असर रहा कि लोग डरकर ही सही सीमित संख्या में घरों से निकले जरुर।


बहरहाल प्रशासन लोगों में समाए डर को कम करने की कोशिश तो कर रहा है। लेकिन बीते साल का अनुभव कंधमाल की आवाम को अभी भी डरा रहा है। ऐसे में भारत के लोकतंत्र की जीवंतता पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। लोकतंत्र तब तक जीवित है जब तक आवाम का विश्वास चुनाव पर है और वे बेखोफ वोट डालने जा रहे हों।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

जूता बनाम लोकतंत्र

इन दिनों नेताओं और जूतों में एक रिश्ता सा बनता जा रहा है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बुश पर जूते क्या चले नेताओं को जूते मारने का चलन सा चल पड़ा। चीनी नेता बेन जियाबाओ, गृहमंत्री पी.चिदंबरम,विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी, यहां तक कि अब अभिनेता जीतेन्द्र भी इस जूते चप्पल के खेल से बच नहीं सके। हालात इतने खराब हो गए हैं कि जूते-चप्पलों से बचने के लिए अब नेताओं को नई व्यवस्था करनी पड़ रही है। जिसकी झलक दिखी अहमदाबाद के नरोडा में, जहां भाजपा के स्टार प्रचारक और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जनता से मुखातिब होने वाले थे। किसी कोने से जूते न उछले इसलिए मंच के आगे भाग को जाल से घेर दिया गया था। अभी तक नरेन्द्र मोदी की तरफ जूते या चप्पल नहीं उछले हैं। लेकिन कहते हैं ना कि दुर्घटना से सुरक्षा भली है-इसलिए यह पूरी कवायद की गई।

खैर, मुद्दा यहां यह नही है कि नेताजी जूते खाने लायक हैं या नहीं। बल्कि हमें यह सोचना चाहिए कि इन घटनाओं से हमारे लोकतंत्र की जीवंतता पर कितना असर पड़ सकता है। ऐसी घटनाओं में हम उस व्यक्ति पर जूते चला रहे होते हैं जिसे हम खुद चुनकर संसद में पहुंचाते हैं। जिसे हम निर्णय लेने वाले हाथ भी कहते हैं। यानि हम अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों का ही जूतों से स्वागत करते हैं।

कहा गया है कि कोई घटना अगर पहली बार हो तो इतिहास बनता है, दो-तीन बार हो तो उसे त्रासदी कहते हैं लेकिन अगर वही घटना बार-बार हो तो वह उपहास का पात्र होता है। कुछ ऐसा ही भारत में भी दिख रहा है। जहां जूता मारना अब सियासी खेल बन चुका है। खबर तो यह भी है कि कानपुर के एक गांव में तो जूते मारने की बकायदा स्कूल खोली गई है। जहां बच्चे और बुजुर्ग नेता के एक पुतले पर जूते-चप्पल मारने का अभ्यास कर रहे हैं। हम यह लगभग भूल चुके हैं कि मुंतजर अल जैदी का विरोध तो एक ऐसे ‘तानाशाह’ के खिलाफ था जिसने इराक को अधोषित उपनिवेश बना रखा है।

इसमें दो राय नहीं कि नेताओं ने देश का बंटाधार किया है। लेकिन इसके लिए मात्र नेता ही दोषी नहीं हैं। कसूर अपने को अच्छे कहने वाले लोगों का भी है,जो राजनीति में आने के बजाय इसे गंदा खेल समझते हैं। नेताओं को जूते मारना ही सारी समस्याओं का समाधान नहीं है। हमारे पास वोट का भी तो अधिकार है जिसका बेहतर प्रयोग कर हम देश का भला कर सकते हैं। हलांकि ज्यादातर मतदाताओं की यह शिकायत रहती है कि उनके इलाके में कोई ईमानदार उम्मीदवार मैदान में नहीं है। लेकिन हम ईमानदार उम्मीदवार को भी संसद में कहाँ पहुंचाते हैं? नेताओं को जूते मारने से बेहतर है कि हम चुने हुए प्रतिनिधि को ‘वापस बुलाने के अधिकार’ के लिए लड़े। अभी भी जनांदोलन कितना कारगर है इसका बेहतर उदाहरण सूचना का अधिकार आंदोलन से समझा जा सकता है।

कोई भी काम सही रणनीति बनाकर की जाए तभी उसका परिणाम अच्छा होता है। गलत तत्वों वाले नेताओं से मुक्ति पाने के लिए भी हमें उचित तरीका ही अपनाना होगा। महज मीडिया में आने के लिए जूते चलाना उचित नहीं। जूते चलाकर हम मात्र विरोध के इस बढ़िया औजार का उपहास उड़ा रहे हैं। अभी जरुरत है बेहतर रणनीति बनाकर जनांदोलन को आगे बढ़ाया जाए।