सोमवार, 30 मार्च 2009
मुद्रास्फीति बनाम ‘वास्तविक’ महंगाई दर
पिछले साल की ही बात है जब इस महंगाई दर ने आम आदमी को खूब रूलाया था। कारण था इसका दहाई के अंक को पार कर जाना। लेकिन अब जब यह शून्य के पास पहुंच गई है तो क्या आम आदमी खुश है? मंहगाई दर में आ रही लगातार गिरावट लोगों उतना शुकून दे रही है जितनी शिकन उनके चेहरे पर पिछले साल थी?
विश्व बाजार में कच्चे तेल, धातु और खाने के सामानों के महंगे होने से पिछले साल महंगाई दर बढ़ी थी। तर्क यह दिए गए कि अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में तेल के दाम चढ़ गए है साथ ही अमेरिका जैसे देश जैविक ईंधन बनाने में खाद्य फसलों का उपयोग कर रहे हैं। हलकान हो रही जनता के सवाल पर घिरी सरकार ने भी आर्थिक सुधार पर जोर दिया और ब्याज दरों में कटौती शुरू की। सरकार इन्हीं सुधारों को महंगाई दर कम होने का कारण बता रही है। लेकिन अपनी पीठ थपथपाने से पहले शायद वह यह भूल गई कि बाजार में मांग नहीं रहने के कारण ही मंहगाई दर घट रही है।
आर्थिक विश्लेषकों की मानें तो महंगाई की यह दर अब जीरो या डिफलेशन की ओर बढ़ रही है। डिफलेशन वह अवस्था होगी जब उत्पादन तो होगा लेकिन बाजार में मांग नहीं होगी। ऐसी स्थिति में भी सामानों के सस्ते होने के दावे आम लोगों के लिए महज भुलावा ही साबित हांेगे।
दरअसल, हमारे देश में महंगाई दर मापने की नीति ही गलत है। हम थोक मूल्य सुचकांक के आधार पर इस दर को मापते है। कच्चे तेल, धातु जैसे पदार्थ इस थोक मूल्य में होते हैं। इनमें दैनिक जरूरत के सामान कम ही होते है । यही कारण है कि थोक स्तर पर सामानों के दाम कम होने पर भी इसका असर बाजार मूल्य यानि उपभोक्ता मुल्य पर नहीं दिखता। आंकडेबाजी की ही बात करें तो अभी भी उपभोक्ता मूल्य 10 फीसद के आस-पास है। पिछले सप्ताह भी फल, सब्जियों, चावल, कुछ दाल, जौ और मक्के की कीमत में ०.1 प्रतिशत की वृद्धि ही दर्ज की गई है। साथ ही मैदा, सूजी, तेल, आयातित खाद्य तेल और गुड़ भी महंगंे हुए हैं।
सरकार चाहेे तो चीजों की कीमतों और महंगाई की दर में स्पष्ट रिश्ता कायम कर सकती है। ‘सरकारी’ महंगाई दर और ‘वास्तविक’ महंगाई दर में तभी संबंघ बनेगा जब एक बेहतर आर्थिक नीति बनेगी और उपभोक्ता मूल्य के आधार पर महंगाई दर तय किया जाएगा।
गुरुवार, 12 मार्च 2009
अगली होली में...
अबीर-गुलाल याद करूंगा...
गालों पर लाली याद करूंगा...
कैंटीन के आगे जोर-जोर से ढ़ोलक बजाना याद करूंगा...
ओएसडी का डांटना याद करूंगा...
पेट भर ढ़डई पीना याद करूंगा...
दिन भर नशे में झूमना याद करूंगा ...
जी भर गुजिया और मट्ठी खाना याद करूंगा...
अमित का दिवाकर को गिराना याद करूंगा...
भांग का काजु-बादाम का शरबत याद करूंगा...
भांग की गोली के लिए ओझा सर की मिन्नतें करना याद करूंगा...
चमड़िया सर का प्यार से सिर पर हाथ फेरना याद करूंगा...
प्रधान सर का लंच याद करूंगा...
सच कहूं तो आईआईएमसी की होली याद करूंगा...
बुधवार, 4 मार्च 2009
पत्रकार को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए?
इलेस्ट्रेटेड विकली के संपादक अनिल धारकर ने 19-25 दिसंबर 1992 के अंक में अपनी संपादकीय टिप्पणी में सहकर्मियों के साथ हुई बैठक का जिक्र किया है। यह बैठक 6 दिसंबर के बाबरी मस्जिद विध्वंस की छाया में हो रही थी । एक ने पूछा,‘‘आप के पास आडवाणी के इस आरोप का क्या जवाब है कि जब कश्मीर में इतने सारे मंदिर तोड़े गए तब किसी ने चूॅ तक नहीं की, दूसरी ओर एक- सिर्फ-एक मस्जिद टूटी तो पूरा देश भड़क उठा?’’ दूसरे का मत था,‘‘हम लंबे अरसे से अल्पसंख्यकों की तरफदारी करते आये हैं।’’ एक और सहकर्मी ने शिकायत की ‘‘ बांग्लादेशी शरणार्थियों को हम क्यों आने देते हैं जबकि हमारे पास अपने लिए ही पर्याप्त साधन नहीं है। क्या केवल इसलिए नहीं कि वे अल्पसंख्यक हैं?‘‘( सदर्भ-भारतीय मुसलमानः मिथक और यर्थाथ)
यह इलेस्ट्रेटेड विकली के दफ्तर की तस्वीर मात्र ही नहीं है बल्कि यह इस ओर भी इंगित करती है कि पत्रकारीय मूल्य का कितना पतन हो चुका है? पत्रकारों के इन प्रश्नों के कई मर्म हैं। जिनमें मुख्य मुद्दा यह है कि जब उच्च शिक्षित वर्ग भी चीजों को केसरिया चश्में से देखेगा तो सड़क के आदमी से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह इन तरह की घटनाओं पर प्रतिक्रिया देते वक्त सांप्रदायिक बहाव में नहीं बहे? ऐसे में यह बहस लाजिमी है कि पत्रकार को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए अथवा नहीं।
पत्रकारीता का इतिहास काफी पुराना है। इस काल में पत्रकारों के लिए मुश्किल दौर भी आए और स्वर्णीम युग भी। पत्रकारों से हमेशा यह अपेक्षा की जाती रही है कि वह किसी भी मसले को धार्मिक चश्में से देखने के बजाय उसे निष्पक्षता की कसौटी पर तोले। सच्ची और सही तस्वीर पेश कर वह पत्रकारीय मूल्य को जीवित रखे। कहना गलत नहीं होगा कि कई ऐसे पत्रकार रहे हैं जिन्होंने पत्रकारीय मूल्य को जाति, धर्म और क्षेत्र से ज्यादा महत्व दिया। आजादी पूर्व की पत्रकारीता हमारे सामने है। तमाम मुश्किलों के बावजूद उस दौर के पत्रकारों ने अपने उसूलों और मजहबी एकता को टूटने नहीं दिया। यह दौर मिशन प्रधान था और मकसद थी, सिर्फ आजादी। इस मिशन को हिंदू-मुस्लिम जैसी कोई भावना प्रभावित नहीं कर सकी। मुल्क के प्रति वफादारी और हमदर्दी क्या होती है, इसका अंदाजा ‘पयामे-हिंद’ अखबार के संपादकों की शहादत से समझा जा सकता है। आजादी की लौ को जलाए रखने और ब्रिटिश सरकार का विरोध करने के कारण इस अखबार के कई संपादक शहीद हुए। मौत की सजा पाए सभी संपादकों का संबंध मुस्लिम कौम से था।
यहां गणेश शंकर विधार्थी का जिक्र लाजिमी है। सन् 1931 के कानपुर दंगे के बारे में विधार्थी ने लिखा था- रक्तपात ओर नरहत्या अच्छे काम नहीं। संसार के सुन्दर और सबल आदमियों का एक-दूसरे के गले काटना कोई मनोहारी दृष्य नहीं; वह आत्मा को कोई मृदु संदेश देने वाली चीज नहीं।- हालांकि इसी सांप्रदायिकता की आग को बुझाने के क्रम में उनकी हत्या कर दी गई। बावजूद वे पूर्वाग्रह को किनारे रखकर सच्ची तस्वीर पेश करने में सफल रहे। पत्रकारीय मूल्य को आत्मसात् कर चीजों को वस्तुनिष्ठ तरीके से देखना, उनकी विशेषता रही।
यह तो रही आजादी पूर्व की दास्तां। अब तस्वीर बदली है। पत्रकारीय मूल्य में आई गिरावट ने इस मिशन प्रधान क्षेत्र को मुनाफा प्रधान में बदल दिया। विभिन्न मसलों को धार्मिक नजरीये से देखने की स्थिति ने देश और समाज को कई तरह से नुकसान पहुंचाया। 1984 ई. में हुए हिंदु-सिक्ख दंगा, भागलपुर दंगा, सीतामढ़ी दंगा, गुजरात का दंगा, बाबरी मस्जिद विध्वंस या फिर मुम्बई बम विस्फोट- कई ऐसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिसमें खबरों को धर्म के आधार पर परखा गया। 1990 ई. में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान अफवाहों को खबर बनाकर प्रमुखता से छापा गया। इन खबरों से कई जगह दंगे भड़क उठे। आगरा से प्रकाशित ‘ आज ’ ने तो 11-23 दिसम्बर 1990 को खबर छापी कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविघालय के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल काॅलेज में भर्ती 32 मरीजों को जहरीला इंजेक्शन देकर हत्या कर दी गई है। खबर छपने के साथ ही माहौल गर्म हो उठा और कईयों को अपनी जान से हाथ घोना पड़ा। बाद में यह खबर गलत साबित हुई। ठीक इसी चरित्र जैसी खबरों को स्वतंत्र चेतना, स्वतंत्र भारत और दैनिक जागरण जैसे अखबारों ने भी छापा जो निराधार साबित हुआ। मीडिया के इस चरित्र पर जाने-माने मीडिया विषेशज्ञ सुधीश पचोरी ने लिखा है- 2007 ई. में अयोध्या में हुए शिलापूजन में मीडिया ने घंटों लाइव बिताए और देशभर में एक ‘अ-घटना’ को ‘बड़ी घटना’ बनाकर दिखाया। हम देखते हैं कि तब से मीडिया हर ऐसी हिन्दुत्ववादी घटना को इतना ज्यादा कवर करने लगा है कि गुजरात का मामूली-सा पादुका पूजन तक लाइव हो गया। इसका अर्थ यह हुआ कि मीडिया ने दर्शकों के बीच हिन्दुत्व को जमकर बेचने का काम किया। सेक्युलर विचारों को हाशिये तक पर नहीं रखा। (संदर्भ- मीडिया की परख)
क्या कारण है कि आम पत्रकार हिन्दु-मुस्लिम विवाद को निष्पक्ष नजरिये से नहीं देख पाता? जवाब आरक्षण विरोधी आंदोलन के वक्त उसकी भूमिका में देखा जा सकता है। जिस तरह अधिकतर पत्रकारों के हिन्दु रहने के कारण दलित और पिछड़ा वर्ग नहीं दिख पाया। उसी तरह हिन्दु-मुस्लिम विवाद में वे मुस्लिम पक्ष नहीं देख पाते। 9/11 के बाद अमेरिकी मीडिया पश्चिमी मीडिया की मुस्लिम विरोधी बातों ने हमारे यहां की मीडिया को भी प्रभावित किया है। पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर हम भी आतंकवाद अथवा आतंकवादी कार्रवाई को सीघे एक धर्म विशेष से जोड़ने लगते हैं। दलील यह दी जाती है कि उनके धर्मस्थलों में आतंकवादी बनने की तालीम दी जाती है। क्या यह सच है? आजादी के 60 सालों के बाद भी मुसलमान अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं-इसके पीछे कहीं-न-कहीं हमारी राजनीतिक व्यवस्था जिम्मेदार है। हम इन बातों को भूल जाते हैं और उन धर्मामवलंबी की नकारात्मक छवि अपने अवचेतन मन में बनाते हैं। ‘ मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ’- को स्वतंत्रता दिवस पर सुनना तो अच्छा लगता है लेकिन उसके मर्म को समझकर रिपार्टिंग करना, शायद कठिन? पूर्वाग्रह से प्ररित रिपोर्ट न सिर्फ पत्रकारीय कर्म की तिलांजली देते हैं बल्कि भारतीय समाज की बुनियाद ‘ अनेकता में एकता ’ को भी कमजोर करते हैं।
मार्क्स ने कहा है कि धर्म अफीम की तरह है। निश्चित तौर पर हमारा समाज अफीम की गोली खाकर सोया है। विभिन्न परेशानियों से जुझने के बावजूद हम अपने अधिकारों के लिए शायद ही खड़े होते हैं। सोचते हैं- ‘ जाहे विधि राखत राम ताहे विधि रहिये ’। लेकिन समाज का एक जिम्मेदार व्यक्ति (पत्रकार) भी अफिम की गोद में सोकर सूचनाओं का प्रसारण करेगा तो देश और समाज को क्या दिशा मिलेगी?
दरअसल, मीडिया मुसलमानों के प्रति खास नजरिया अपनाकर न सिर्फ भारतीय समाज को नुकसान पहुंचा रहा है बल्कि अपनी विश्वसनीयता भी खोता जा रहा है। जरूरी नहीं कि सारे मीडियाकर्मी एक ही विचार के हों, लेकिन उनमें मानवीय मूल्यों की गहरी समझ तो होनी आवश्यक है। स्वतंत्र, समझदार, निष्पक्ष और आघुनिक मीडिया के लिए जरूरी है कि पत्रकार न सिर्फ धर्मनिरपेक्ष ही हो बल्कि वह पंथनिरपेक्ष और जातिनिरपेक्ष भी हो। तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर ही हम समाज को रचनात्मक प्रेरणा दे सकेंगे और पत्रकारीय दायित्व की रक्षा कर सत्य को उजागर कर सकेंगे।
सोमवार, 2 मार्च 2009
सुखराम: शर्ट रूप सुक्रम
सोमवार की सुबह पुस्तकालय में किताबों के बीच मुझे नागार्जुन रचनावली दिखी। इसके भाग-2 के पन्नों को पलटते वक्त मेरी नजर एक कविता पर टिक गई। यह कविता पी.वी. नरसिंहराव सरकार में केन्द्रीय संचार मंत्री रहे सुखराम पर लिखी गई है। 1996 ई. में लिखी गई इस कविता में सुखराम के बहाने सत्ता पर किए गए कटाक्ष को आप भी महसूस करें -
सुखराम: शर्ट रूप सुक्रम
अब तक कहां छिप थे
ये ‘भारत-रत्न’
हिमाचल में पैदा हुए...
पले-पुसे बड़े हुए
पी.वी. की गोद में
बैठे, 5 वर्ष तक मौज किया
संचार मंत्री रहे
पी.वी. ने प्यार से
पीठ सहलाई
अपने आप
जादुई तरीके से
नगदा-नगदी करोड़ों की रकम
लाॅकर में संचित
होती रही
3 करोड़ से ऊपर हो गई
परिवार की महिलाओं और
बाल-बच्चों के आभूषण...
हीरा-मोती-पन्ना-पुखराज
जड़ित गहने
और न जाने क्या-क्या
हिमाचल से बाहर, सुदूर
हैदराबाद(आंध्र) के बैंक के
अंदर लाॅकर से निकले हैं...
जय हो सुखराम की !
जय हो पी.वी. के
अंतरंग सखा की !!
मगर, दरअसल
‘सुखराम’ कोई एक
व्यक्ति नहीं गोत्र है-
पूरा का पूरा- पी.वी.
नरसिंह राव इस
गोत्र के बीज पुरुष हैं
राव अगर 5 वर्ष और
प्रधानमंत्री रह पाते तो
पट्ठा सुखराम
जाने क्या हो जाता !
सुखराम- शार्ट रूप
‘सुक्रम’ तब हो जाता
त्रिभुवनव्यापी-
‘इंटरकांटिनेंटल’
विश्व का महानगर
कोई शायद ही छूट पाता
सुक्रम की पचास -
पचपन मंजिली इमारतों से !
इयरबुक भर जाते
सुक्रम से ...
18 अगस्त 1996
मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा ...
पं0 भीमसेन जोशी की आवाज में आपने ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा’ गाने को दूरदर्शन पर बराबर देखा होगा। इस संगीतमय प्रस्तुती में भारत की पहचान ‘अनेकता में एकता’ दिखती है। 80 के दशक में आई इस गाने की जीवंत तस्वीर अगर देखनी हो तो आपका सूरजकुण्ड मेले में स्वागत है।
अरावली की वादियों में लगने वाले इस खूबसूरत ‘अन्तर्राष्ट्रीय क्राफ्ट मेले’ को हरियाणा सरकार आयोजित करती है। इस बार मेला का थीम मध्यप्रदेश है। इसकी झलक मेले के प्रवेशद्वार के समीप ही बनी प्रसिद्ध भीम बेटका की पहाड़ी की कलाकृति से दिखने लगेगी। इसके साथ ही मेले परिसर में ही बने ‘अपना घर’ में भील जाति को नजदीक से जानने का मौका भी आपको मिलेगा। इस मेले में प्रायः हरेक राज्यों से आए हस्तशिल्पी भाग लेते है और अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। लेकिन जो बात इस मेले को अन्य मेलों से अलग करती है वह है, इसमें दिखने वाले लोकनृत्य। इसके लिए मेले में ‘चैपाल’ बनाया गया है, जहां कलाकार हर दिन अपने नृत्य को प्रस्तुत करते हैं। लेकिन इसके साथ ही अलग-अलग जगहों पर मंडली जमाए कुछ कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते भी दिखते हैं।
‘लाज बचाओ गजानन...’ गाने की घुन पर कठपुतलीयों की लचकती कमर आपको बरबस ही रूकने को मजबूर करेंगे। यह नृत्य अमरसिंह राठौड़ और सलावत खान की आगरे में हुई लड़ाई पर आघारित है। राजस्थान के इस प्रसिद्ध लोकनृत्य को तेजपाल नागोरी अपनी टीम के साथ मेले में लेकर आए हैं। चंद कदम दूर ही मध्यप्रदेश की काठी नृत्य भी आपको दिखेगी। इस नृत्य की विशेषता है कि इसका प्रदर्शन दीपावली के बाद के एकादशी से महाशिवरात्री तक यानि तेरह महीना तेरह दिन तक ही होता है। यह सृष्टी निर्माण की पौराणिक कथाओं से संबंघित है। मध्य प्रदेश कला परिषद् की तरफ से मांगीलाल मालवीय की टुकड़ी इसका यहां प्रदर्शन कर रही हैं। मेले में जिस लोकनृत्य की थाप दूर से ही सुनी जा रही है, वह है वृज रसिया नाच। यह नाच हरियाणा के मुख्य लोककलाओं में एक है। इस नाच में बजते नगाड़े की तेज और दिलकश आवाज आपके कदमों को बरबस ही थिरकने को मजबूर करेंगी। युवाओं की फौज तो मानो यहां से हटने को तैयार ही नहीं होती। इसके अलावा महाराष्ट्र, आँध्रप्रदेश सहित कई राज्यों के कलाकार भी आपको झुमाने को तैयार दिखेंगे। कला का सुरूर इस कदर आप पर चढ़ेगा कि चाहकर भी आप इससे नहीं बच सकते।
निश्चित तौर पर, मेले में कई सुर हैं और इन सुरों से सजी संगीत अनूठी। सूरों की यह महफिल इतनी दिलकश कि आप ‘‘वाह वाह...’’ कहे बिना नहीं रह सकते। तो भारत को समझने चलें सूरजकुण्ड...