शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

संपादकगण बेबस करें गुमाश्‍तागीरी...

अभी अभी बीते आम चुनाव में खबरों को जब बाजार की सुनहली पालकी में झुला कर उपभोक्ता के सामने रखा गया, तो खूब हाय-तौबा मची। चारों ओर से यह आवाज उठने लगी कि पत्रकारीय मूल्य में गिरावट आ गयी है और ख़बरों को अर्थ के आधार पर तय किया जाने लगा है। आप कुछ भी छापें हमें फर्क नहीं पड़ता… और खबरों से खेलना ही आपकी पत्रकारिता है… जैसे जुमले प्रयोग होने लगे। लेकिन ऐसा नहीं है कि ख़बरों को मसाले की छौंक मारकर परोसने का धंधा हाल ही में शुरू हुआ है। बल्कि इस तथाकथित मज़बूत स्तंभ पर आर्थिक या यूं कहे मिलावट की पुताई आज़ादी के बाद से ही शुरु हो गयी थी।

संपादकगण बेबस करें गुमाश्‍तागीरी

यद्यपि पेट भर खाएं न बस फांके पनजीरी

बढ़ा-चढ़ा तो अख़बार का कारोबार है

पांति-पांति में पूंजीवादी प्रचार है

क्या तुमने सोचा था कभी काले-गोरे प्रेसपति

भोले पाठक समुदाय की हर लेंगे गति और मति...

बाबा नागार्जुन ने यह कविता 1950-52 में लिखी थी। इन पंक्तियों को समझने में शायद ही किसी को दिक्कत हो? यहां पूजींवाद और संपादक के बीच पनप रहे नये रिश्ते की तरफ इशारा किया गया है। हां यह बात और है कि अब जाकर भोले-भाले पाठक को यह बात समझ में आयी है। इसलिए बहस का मुद्दा यह नहीं होना चाहिए कि ख़बरों में मिलावट कितनी हो रही है? बल्कि सोचना यह होगा कि आख़‍िर क्यों एक पत्रकार सत्ता की दलाली करने पर मजबूर है?

पिछले महीने ही मेरी एक स्ट्रिंगर से मुलाकात हुई। उसने बताया कि उसे एक ख़बर के लिए महज दस रुपये मिलते हैं। अख़बार में रोज़ाना उसकी दो-तीन ख़बर छपती है। इस तरह देखें तो उसकी मासिक आमदनी करीब हजार-बारह सौ रुपये ही बनती है। ऐसे में आखिर कब तक वह ख़बरों से इंसाफ कर पाएगा? एयरकंडीशन सेमिनारों में हम-आप पत्रकारिता को गांवों से जोड़ने की वक़ालत करते है। चलो गांवों की ओर जैसे नारे बुलंद करते है। लेकिन हममें से कौन गांवों में जाकर आदर्श पत्रकारिता करने को उत्सुक है? जवाब अपवाद में ही होंगे। आज भी गांवों की जो हालत है किसी से छुपी नहीं है। यहां चाय-नाश्‍ते के आधार पर ख़बर गढ़ी जाती है। ऐसे में जब तक स्ट्रिंगर या छोटे पत्रकार को सुविधा नहीं दी जाएगी, तब तक आदर्श पत्रकारिता की बात बेमानी ही साबित होगी। हालांकि, इसका यह मतलब नहीं लगाना चाहिए कि स्टिंगर ही पत्रकारीय मूल्य में आ रही गिरावट के लिए ज़‍िम्‍मेदार हैं। दरअसल यहां भी पूंजीवादी व्यवस्था का प्रभाव है, और यह सारा खेल मठाधीश बने पत्रकारों का खेला हुआ है, जो अपना लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं।

अपने सौ वर्षों से अधिक का लंबा सफर तय करने के बाद अब तो मीडिया बाकायदा एक उद्योग बन गया है। और हर उद्योग का मक़सद ही होता है, मुनाफा कमाना। मीडियाकर्मी तो मात्र कलम की नौकरी करते हैं और हुक्म की तामील में हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। ऐसे में मीडिया को पत्रकारिता का पर्याय मानना ही मुगालते में रहना होगा। दिनोंदिन मीडिया मैनेजमेंट का दबाव भी इस कदर बढ़ रहा है कि समाचारों की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और तथ्यपरकता की बात बेमानी ही है। ये बात और है कि ख़बर को स्वतंत्र और निष्पक्ष समझने वाले दर्शक-पाठक को धोखा देने के बाद भी हम सिर उठाकर उनकी पत्रकारिता करने का दंभ भरते हैं।

दोस्तो, अब सोचना हम नई पीढ़ी को है। आत्ममंथन करें कि वाकई इस क्षेत्र में हम मिशन प्रधान पत्रकारिता करने आये हैं या उपभोग की संस्कृति का हिस्सा बनने? अगर नयी पौध भी पत्रकारीय मूल्य की तिलांजलि देकर ही पत्रकारिता करती है, तो वह भी उसी भीड़तंत्र का हिस्सा बनेगी, जिसकी नज़र में हाशिये पर खड़े आम आदमी की कोई कीमत नहीं। तब फिर बहस की बात बेमानी होगी?

सोमवार, 6 जुलाई 2009

बच्चा बच्चा हिंदुस्तानी मांग रहा है पानी

उत्तर प्रदेश का नोयडा औद्योगिक शहर के रूप में अपनी पहचान बना चुका है। तेजी से बढ़ रहे कंक्रीट के जाल इस शहर को नया रूप देने में कोई कोताही नहीं कर रहे। लेकिन मैंने जब इस शहर को नजदीक से देखा, तो मुझे हैरानी हुई कि यहां पीने का पानी उपलब्ध नहीं है। मीठा पानी खरीद कर यहां के वाशिंदे अपनी प्यास बूझाते हैं। वैसे मीठे जल को लेकर पर्यावरणविदों की चिंताएं यत्र-तत्र-सर्वत्र पढ़ता रहता हूं, लेकिन मैंने इस इलाके में जो देखा वह मेरे लिए बिल्कुल नया अनुभव है।

हाल ही में एक सर्वेक्षण पढ़ा था कि दिल्ली में 25 प्रतिशत लोगों को नहीं मालूम कि यमुना नदी दिल्ली से गुजरती है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि यहां के लोगो का सामान्य ज्ञान कमजोर है। बल्कि मेरा मानना है कि लोग अभी भी पानी को लेकर उतने जागरूक नहीं हुए हैं, जितने होने चाहिए। शायद इसलिए अपनी कुल लंबाई (22 किमी.) की मात्र दो प्रतिशत दिल्ली में बहने वाली यमुना में 80 फीसद प्रदूषण यहीं होता है। ''सेंटर फॉर साइंस एंड एंनवायरमेंट'' की सुनीता नारायण भी कहती है कि 'यमुना दिल्ली में दम तोड़ चुकी है, मात्र उसे दफनाया जाना है।' पानी की ठीक यही कहानी देश के बांकी हिस्सों में भी दिख रही है। बाढग़्रस्त इलाके को छोड़ दें तो कमोबेश भारत का सभी हिस्सा पानी के लिए संघर्ष कर रहा है। मध्यप्रदेश में पुलिस की देखरेख में पानी बांटी जा रही है (वह भी राशन कार्ड के आधार पर), दक्षिण के इलाकों में कई लोग पानी बिना काल के गाल में समा चुके हैं और तो और दिल्ली में ही प्रतिदिन 30 करोड़ गैलन पानी की कमी हो रही है।

आखिर ऐसा क्यों ? कौन है इस विकट स्थिति के लिए जिम्मेदार ? क्या नदी घाटी सभ्यता का अंत पानी नहीं मिलने के कारण होगा ? क्या पानी के लिए तीसरे विश्वयुद्घ की आशंका सही साबित होगी ? इन सवालों के जवाब हमें ही ढूढऩें होंगे। यहां मैं आपको रघुवीर सहाय की यह प्रसिद्ध कविता 'पानी' के साथ छोड़ रहा हूं-

पानी पानी
बच्चा बच्चा
हिंदुस्तानी
मांग रहा है पानी

जिसको पानी नहीं मिला है
वह धरती आजाद नहीं
उस पर हिंदुस्तानी बसते हैं
पर वह आबाद नहीं

पानी पानी
बच्चा बच्चा
मांग रहा है हिंदुस्तानी

जो पानी के मालिक हैं
भारत पर उनका कब्जा है
जहां न दे पानी वां सूखा
जहां दें वहां सब्जा है

अपना पानी
मांग रहा है
हिंदुस्तानी

बरसों पानी को तरसाया
जीवन से लाचार किया
बरसों जनता की गंगा पर
तुमने अत्याचार किया

हमको अक्षर नहीं दिया है
हमको पानी नहीं दिया
पानी नहीं दिया तो समझो
हमको बानी नहीं दिया

अपना पानी
अपनी बानी हिंदुस्तानी
बच्चा बच्चा मांग रहा है

धरती के अंदर का पानी
हमको बाहर लाने दो
अपनी धरती अपना पानी
अपनी रोटी खाने दो

पानी पानी पानी पानी
बच्चा बच्चा मांग रहा है
अपनी बानी
पानी पानी पानी पानी
पानी पानी